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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
भट्टारक के शिष्य सर्वनन्दि को पेन्ने कडंग (Pannekadonga) के सिद्धान्त सत्यवाक्य जिन मन्दिर के लिये दिये थे।
जैन लेख सं० भा. २ पृ. १५४
कूविलाचार्य मह यापनीय नन्दि संघ पुन्नाग वृक्ष मूलगणशाखा के विद्वान थे। जो व्रत, समिति, गुप्ति में दृढ़ थे और मुनिवृन्दों के द्वारा वंदित थे । इनके शिष्य विजयकीर्ति थे, और विजयकोर्ति के शिष्य अर्ककीर्ति थे । शक सं० ७२५ सन् ८०३ (वि० सं० ८७० ) के राजप्रभूत वर्ण ने (गोविन्द तृतीय ने) जब वे मयूर खण्डी के अपने विजयी विश्राम स्थल में ठहरे हुए थे। चाकिराज की प्रार्थना से 'जालमंगल' नाम का गांव मुनि अर्ककीर्ति को शिलाग्राम में स्थित जिनेन्द्र भवन के लिये दिया था।
देखो, जैन लेख सं० भा. २ नं० १ पृ० २३१
वादीसिंह वादीभसिंह कवि का मूल नाम नहीं है किन्तु एक उपाधि है, जो वादियों के विजेता होने के कारण उन्हें प्राप्त हुई थी। उपाधि के कारण ही उन्हें वादीभसिंह कहा जाने लगा। मूल नाम कुछ और ही होना चाहिये। वादीभसिंह का स्मरण जिनसेनाचार्य (ई. ८३८) ने अपने आदिपुराण में किया है और उन्हें उत्कृष्ट कोटि का कवि, वाग्मी और गमक बतलाया है यथा
कवित्वस्य परासीमा वाग्मितस्य परं पदम् ।
गमकत्वस्य पर्यन्तो वादिसिंहोऽच्यते न कैः॥ पार्श्वनाथ चरित के कर्ता वादिराजसूरि (ई० १०२५) ने भी वादिसिंह का उल्लेख किया है और उन्हें स्यावाद की गर्जना करने वाला तथा दिग्नाग और धर्मकीर्ति के अभिमान को चूर-चूर करने वाला बतलाया है।
स्याद्वाद गिरिमाश्रित्य वादिसिहोस्य गजिते।
विङनागस्य मबध्वंसे कोतिभंगों न दुर्घटः॥ इन उल्लेखों से वादीभसिंह एक प्रसिद्ध दार्शनिक विद्वान ज्ञात होते हैं । उनको स्याद्वादसिद्धि उनके दार्शनिक होने को पुष्ट करती है । पर आदिपुराणकार ने उन्हें कवि और वाग्मी भी बतलाया है। इससे उनकी कोई काव्य कृति भी होनी चाहिये।
गद्य चिन्तामणि के प्रशस्ति पद्य में उन्होंने अपने गुरु का नाम पुष्पसेन बतलाया है, और लिखा है कि उनकी शक्ति से ही मेरे जैसा स्वभाव से मूढ़ बुद्धि मनुष्य वादीभसिंह, श्रेष्ठ मुनिपने को प्राप्त हो सका।
श्री पुष्पसेन मुनि नाथ इति प्रतीतो, दिव्यो मनुर्ह दि सदा मम संविष्यात । यच्छक्तितः प्रकृति मूढमतिर्जनोऽपि
वादीसिंह मुनि पुङ्गवतामुपैति ॥ मल्लिषेण प्रशस्ति में मुनि पुष्पसेन को अकलंक का सधर्मा गुरुभाई लिखा है, और उसी में वादीभिह उपाधि से युक्त एक प्राचार्य प्रजितसेन का भी उल्लेख किया है।
-मल्लिषेण प्रशस्ति
१. श्री पुष्पषेण मुनिरेव पद महिम्नो देवः स यस्य समभूत स महान सधर्मा ।
श्री विभ्रमस्य भवनं ननु पद्ममेव, पुष्येषु मित्रमिह यस्य सहस्रधामा । २. सकलभुवनपालानम्रमूर्धावबद्धस्फुरितमुकुटचूडालीढपादारविन्दः ।
यदवदखिलवादीभेन्द्रकुम्भप्रभेदीगणभदजितसेनो भाति वादीभसिंह, ॥
-शिलालेख ५४, पद्य ५७