________________
२६२
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
वृत्यवंश शतेनेति कुर्वता तत्वभावना । सद्योऽमितगतेरिष्टा निवृत्तिः क्रियते करे ।
'इति द्वितीय भावना समाप्ता' इससे यह कोई बड़ा ग्रन्थ होना चाहिये जिसका यह दूसरा अध्याय है।
भावना द्वात्रिंशतिका-यह ३२ पद्यों का एक छोटा-सा प्रकरण है। इसको कविता बड़ो सुन्दर और कोमल है। इसे पढ़ने से बड़ो शांति मिलती है । इसका हिन्दो अंग्रेजी भाषा में अनुवाद हो चुका है। बहुत से लोग इसे सामायिक के समय इसका पाठ करते हैं ।
ब्रह्म हेमचन्द्र हेमचन्द्र ने अपनी गुरु परम्परा और गण गच्छादिक का उल्लेख नहीं किया। उन्होंने प्राकृत भाषा में 'श्रतस्कन्ध' की ६४ गाथाओं में रचना की है। जिसे उन्होंने तिलग देश के के डनगर के चन्द्रप्रभ जिन मन्दिर : रामनन्दी सैद्धान्तिक के प्रसाद से देशयती हेमचन्द्रने बनाकर समाप्त किया था। ग्रन्थ में कोई रचना काल नही दिया। इस कारण ब्रह्म हेमचन्द्र कब हुए यह विचारणीय है।
एक रामनन्दी का उल्लेख नयनन्दो (वि० सं० ११००) के सुदर्शन चरित को प्रशस्तिमें पाया जाता है जिसमें वषभ नन्दी के बाद रामनन्दी का उल्लेख किया है। और सकल विधि विधान को प्रशनि कंचीपुर का उल्लेख करते हुए बल्लभराय द्वारा निर्मापित प्रतिमा का उल्लेख किया है और बताया है कि वहां गुणमणि निधान' रामनन्दी और जयकोति मोजूद थे। और प्राचार्य रामनन्दो के शिष्य बालचन्द ने सकल विधि विधान ग्रन्थ बनाने को प्रेरणा की थी। इस कारण ये रामनन्दी विक्रमकी ११वीं शताब्दी के प्राचार्य हैं।
नट पराण में आया है और उन्हें नमस्कार किया गया है। अग्गलदेवने उक्त पुराण शक सं० ११११ (वि० सं० १२४६) में बनाकर समाप्त किया है । अतः रामनन्दो सं० १२४६ से पूर्व वर्ती हैं। जहां तक संभव है प्रथम रामनन्दी के प्रसाद से ही हेमचन्द्र ने श्रुतस्कंध बनाया हो। यदि यह ठीक हो तो ब्रह्म हेमचन्द्र ११वीं शताब्दी के विद्वान हो सकते हैं।
श्रुतस्कन्ध में श्रुत का स्वरूप और अंग-पूर्वोके पदों का प्रमाण बतलाते हुए भगवान महावीर के बाद श्रत परम्परा किस तरह चली इसका विवरण दिया गया है। परम्परा वही है जिसका उल्लेख तिलोयपण्णत्ता धवला, जयधवला, इन्द्र नन्दि श्रुतावतार, और हरिवंश पुराण आदि में पाई जाती है ।
पद्मनन्दी पदमनन्दी-मलसंघ काणरगण तिन्त्रिणी गच्छ के सिद्धान्त चक्रवर पद्मनन्दो थे। उन्हें कदम्ब कल के कीति देव की पट्ट महिषी माललदेवी ने ब्रह्म जिनालय की दैनिक पूजा और मुनियों के आहार के लिये पद्मनन्दि सिद्धान्त चक्रवर्ती के लिये पाद प्रक्षालन पूर्वक 'सिड्डणि वल्लिन' को प्राप्त कर दान दिया। यह लेख शक सं० १९७ सन् १०७५ का उत्कीर्ण किया हुआ है । इससे इन पद्मनन्दि का समय ईसाकी ११वी सदी का अन्तिम पाद है।
कनकसेन (द्वितीय) प्रस्तुत कनकसेन चन्द्रिकावाट सेनान्वय के विद्वान प्राचार्य अजितसेन के दीक्षित शिष्य थे। जो मान-मद
१ 'जहि रमणंदि गुण-मरिण-रिणहाणु । जयकित्ति महाकित्ति वि पहाणु ।'
जैन ग्रंथ प्रशस्ति सं० भा० २ १० २७ २ तहि णिए वि भव्वाहिणंदिग्णा, सूरिणा महागमणंदिणा, बालइंदु-सीसेण जंपियं; सयलविहि णिहाणं मणप्पियं ।
जैन ग्रंथ प्रशस्ति सं० भा० २ १० २७ ३ जैन लेख सं० भा० २ १० २६६-२७०