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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ जगतिलक प्रात्मा को छोड़कर हे मूढ ! अन्य किसी का ध्यान मत कर, जिसने आत्मज्ञान रूप माणिक्य पहिचान लिया, वह क्या कांच को कुछ गिनता है।
मढ़ा देह म रज्जियइ देह ण अप्पा होइ।
देहई भिण्णउ णाणमउ सो तहं प्रप्पा जोइ॥१०७।। हे मढ ! देह में गग मत कर, देह आत्मा नही है। देह से भिन्न जो ज्ञानमय है उस आत्मा को तूं देख ।
हलि सहिकाइ करईसो दप्पण, जहि पडिबिम्बु ण दोसइ अप्पणु ।
धंधवालु मो जगु पडिहासइ, घरि अच्छंतु ण घरवइ दीसइ ॥१२२ हे सखि ! भला उस दर्पण का क्या करे, जिसमें अपना प्रतिविम्ब नही दिखाई देता। मुझे यह जगत्लज्जावान प्रतिभासित होता है, जिस घर में रहते हए भी गहपति का दर्शन नही होता।
तित्थई तित्थ भमेहि वढ धोयउ चम्मु जलेण ।
एह मण किमधोएसि तहुं मइलउ पाव मलेण ॥१६३॥ हे मर्ख ! तुने तीर्थ मे तीर्थ भ्रमण किया और अपने चमड़े को जल से धो लिया, पर तू इस मन को, जो पाप रूपी मल से मलिन है, कैसे धोयगा।
अप्पा परहं ण मेलयउ पावागमणु ण भग्गु ।
तुस कंडं तहं कालु गउ तंदलु हत्थि ण लग्गु ॥१८५ न आत्मा और पर का मेल हुआ और न आवागमन भग हुआ। तुष कृटते हुए काल बीत गया किन्तु तन्दुल (चावल) हाथ न लगा।
पुण्णण होइ विहम्रो विहवेण मनो मएण मइ मोहो।
मइ मोहेण य णरयं तं पुण्णं अम्ह म होउ ।। पूण्य से विभव होता है, विभव से मद, और मद से मतिमोह, और मति मोह से नरक मिलता है। ऐसा पुण्य मुझे न हो।
इस तरह यह दोहा पाहुड बहुत सुन्दर कृति है । मनन करने योग्य है ।
पद्मकोति यह मेनसंघ के विद्वान चन्द्रसेन के शिष्य माधवसेन के प्रशिष्य और जिनसेन के शिष्य थे। अपभ्र श भाषा के विद्वान और कवि थे। इन्होने अपनी गुरु परम्परा में इनका उल्लेख किया है। इनकी एकमात्र कृति 'पासमाहचरिउ' है। जिसमे १८ सन्धिया और ३१५ कडवक हैं। जिनमें तेवीसवे तीर्थकर पार्श्वनाथ का जीवनपरिचय अकित किया गया है। कथानक प्राचार्य गुणभद्र के उत्तर पुराण के अनुसार है । ग्रन्थ में यान्त्रिक छन्दों के अतिरिक्त पज्झटिका, अलिल्लह, पादाकुलिक, मधुदार, स्रग्विणी, दीपक, सोमराजी, प्रामाणिका, समानिका और भुजंगप्रयात छन्दों का उपयोग किया गया है।
कवि ने पार्श्वनाथ के विवाह की चर्चा करते हए लिखा है कि पार्श्वनाथ ने तापसियों द्वारा जलाई हुई लकड़ी से सर्प युगल के निकलने पर उन्हें नमस्कार मंत्र दिया, जिससे वे दोनों धरणेन्द्र पौर पद्मावती हुए। इससे पार्श्वनाथ को वैराग्य हो गया। तीर्थकर स्वयं बुद्ध होते है उन्हें वैराग्य के लिए किसी के उपदेशादि की आवश्यकता नही होती। किन्तु बाह्य निमित्त उनके वैराग्योपादन में निमित्त अवश्य पड़ते हैं। श्वेताम्बरीय विद्वान हेमविजय
१. सुप्रसिद्ध महामइ णियमधर, थिउसेण सघु व्ह महिहि वर ।
तहि चदमेणु णामेण रिसी, वय-संजम-णियमइ जासु किसी। तहाँ मीसु महामइ गियमधारि, रणयवंतु गुणायरु बंभयारि । सिरि माहउसेण महाणुभाउ, जिणसेणु सीसु पुण तासु जाउ । तहो पुब्ब सणेहें पउमकित्ति, उप्पण्णू सीसु जिणु जासु चित्ति ।