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नवमी दसवीं शताब्दी के आचार्य
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रविचन्द्र.प्रस्तुत रविचन्द्र सूरस्थगण के एलाचार्य की गुरु परम्परा में हुए हैं। प्रभाचन्द योगोश, कल्नेलेदेव, रविचन्द्र मुनीश्वर रविनन्दि देव-एलाचार्य ।
गंग राजा मारसिंह (द्वितीय) के समय पीप कृष्ण ६ मंगलवार शक ८८४ दुन्दुभि संवत्सर, उत्तरायण संक्रान्ति के समय मेलपाटि के स्कन्धावार मे कोमल देश में स्थित कादलर' ग्राम एलाचार्य को दिये जाने का उल्लेख है। चूकि इस कन्नड शिलालेख का समय सन् ६६२ है ।' अतः यह रविचन्द्र दशवी शताब्दी के विद्वान हैं।
मुनि रामसिंह (दोहापाहुड के कर्ता) मुनि रामसिंह ने अपना कोई परिचय नहीं दिया, और न अपने गुरु का नामोल्लेख ही किया । ग्रन्थ में रचनाकाल भी नहीं दिया और न अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख ही किया दनको एकमात्र कृति 'दाहा पाहुइ' है। जिसमें २२२ दोहे हैं। जिनमें प्रात्म-सम्बोधक वस्तु तत्त्व का वर्णन किया गया है । दोहे भावपूर्ण और सरस हैं। चूंकि इस ग्रन्थ के कर्ता रामसिंह योगी हैं। उन्होंने २११ नं० के दोहे में 'रामीह मणि इम भणइ' वाक्य द्वारा अपने को उसका कर्ता सूचित किया है। डा० ए० एन० उपाध्ये ने लिखा है कि 'एक प्रति की सन्धि में भी उनका नाम मात्र आया है। प्रस्तुत रामसिंह योगीन्दु के बहुत ऋणी हैं । उन्होंने उनके परमात्म प्रकाश से बहुत कुछ लिया है।' रामसिंह रहस्यवाद के प्रेमी थे। इसी से उन्होंने प्राचीन ग्रन्थकारीक पद्यों का उपयोग किया है। वे जोइन्दु और हेमचन्द के मध्य हा रामसिंह का समय दसवीं शताब्दी है । क्योंकि ब्रह्मदेव ने परमात्म प्रकाश की टीका में उसके कई दोहे उद्धत किये हैं। ब्रह्मदेव का समय वि० की ११वीं शताब्दी है । अतः रामसिंह १० वीं शताब्दी के विद्वान होने चाहिये।
ग्रन्थ का प्रतिपाद्य विषय अध्यात्म चिन्तन है। प्रात्मानुभूति और सदाचरण के बिना कर्मकाण्ड व्यर्थ है। सच्चा सुख, इन्द्रिय निग्रह और आत्मध्यान में हैं । मोक्षमार्ग के लिये विषयों का परित्याग करना आवश्यक है। बिना उसके देह में स्थित प्रात्मा को नहीं जाना जा सकता । ग्रन्थ में रहस्यवाद का भी संकेत मिलता है। कुछ दोहों का पास्वाद कीजिये।
हत्थ प्रहहं देवली बालहं णाहि पवेस् ।
संतुणिरंजणु तहि वसइ णिम्मल होइ गवेसु ॥४॥ साढे तीन हाथ का यह छोटा-सा शरीर रूपी मन्दिर है । मूर्ख लोगों का उसमें प्रवेश नहीं हो सकता. इसी में निरंजन (आत्मा) वास करता है, निर्मल होकर उसे खोज।
अप्पा बुझिउ णिच्च जइ केवलणाण सहाउ।
ता पर किज्जइ काइ वढ तण उप्पर अनुराउ ॥२२॥ जब केवल ज्ञान स्वभाव प्रात्मा का परिज्ञान हो गया, फिर यह जीव देहानुराग क्यों करता है ?
धंधइ पडियउ सयल जगु, कम्मई करइ प्रयाणु ।
मोक्खहं कारण एक्कु खणु ण वि चितइ अप्पाणु ॥ सारा संसार धन्धे में पड़ा हुआ है और प्रज्ञानवश कर्म करता है, किन्तु मोक्ष के लिए अपनी आत्मा का एक क्षण भी चिन्तन नहीं करता।
सप्पिं मुक्की कंचुलिय जं विसु तं ण मुएह ।
भोयहं भाउ ण परिहरइ लिंगग्गहणु करेइ ॥१५ जिस तरह सर्प कांचुली तो छोड़ देता है, पर विष नहीं छोड़ता। उसी तरह द्रव्य लिंगी मुनि वेष धारण कर लेता है किन्तु भोग-भाव का परिहार नहीं करता।
अप्पा मिल्लि वि जगतिलउ मूढ म झायहि अण्णु ।
जि मरगउ परिया णियउ तहु कि कच्चहु गण्णु ॥७२ १. (एन्युअलरिपोर्ट माफ साउथ इण्डियन एपिग्राफी सन् १९३४-५२३ पृ० ७)