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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ सं० ११८६ अगहन वदी अष्टमी रविवार के दिन पूर्ण की थी।
उस समय नट्टल साहु ने दिल्ली में आदिनाथ का एक प्रसिद्ध जिनमन्दिर बनवाया था, जो अत्यन्त सुन्दर था, जैसा कि ग्रंथ के निम्न वाक्यों से प्रकट है :
कारावेवि जाहेयहो णि केउ, पविइण्ण पंचवण्णं सुकेउ ।
पई पुणु पइट्ठ पविरइयम, पास हो चरितु जइ पुणवि तेम ॥ उस आदिनाथ मन्दिर की उन्होंने प्रतिष्ठा विधि भी सम्पन्न की थी, उस प्रतिष्ठोत्सव का उल्लेख ग्रन्थ की पांचवीं सन्धिके बाद दिये हुए निम्न पद्य से स्पष्ट है :
येनाराध्य विबुध्य धीरमतिना देवाधिदेवं जिनं । सत्पुण्यं समुपाजितं निजगुणः संतोषिता बांधवाः । जैनं चैत्यमकारिसुन्दरतरं जैनी प्रतिष्ठां तथा । स श्रीमान्विदितः सदैव जयतात्पृथ्वी तले नट्टलः ।। इयं सिरि पास चरित्तं रइय बुह सिरिहरेण गुणभरियं ।
अणुमण्णिय मणोज्जं णट्टल णामेण भव्वेण ॥ कवि की दसरी कति 'वडढमाणचरिउ है। इसमें १० संधियाँ और ३१ कवक हैं। जिनमें अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर की जीवन गाथा दी हुई है। जिसकी श्लोक सख्या कविने ढाई हजार के लगभग बतलाई है। चरित वही है, जो अन्य ग्रन्थों में चचित है, किन्तु कवि ने उसे विविध वर्णों से संजोकर सरस और मनहर बनाया है। ग्रन्थ सामने न होने से उसका यहां विशेष परिचय देना संभव नहीं है।
व श्रीधर ने ग्रन्थ की अन्तिम प्रशस्ति में अपना वही परिचय देते हुए ग्रन्थ रचना में प्रेरक जैसवालवंशी नेमिचन्द का परिचय कराया है, और लिखा है कि मैंने यह ग्रन्थ साह नेमिचन्द्र के अनुरोध से बनाया है, 'नेमिचन्द्र वोदाउ नगर के निवासी थे, जायस कुल कमल दिवाकर थे। इनके पिता का नाम साहु नरवर और माता का नाम सोमादेवी था, जो जैनधर्म को पालन करने में तात्पर थे । साह नेमिचन्द्र की धर्मपत्नी का नाम 'वीवादेवी था। संभवतः इनके तीन पुत्र थे-रामचन्द्र, श्रीचन्द्र और विमलचन्द्र ।
एक दिन साहु नेमिचन्द्र ने कवि श्रीधर से निवेदन किया कि जिस तरह आपने चन्द्रप्रभचरित्र और शान्तिनाथ चरित्र बनाये हैं उसी तरह मेरे लिये अन्तिम तीर्थकर का चरित्र बनाइये। तब कवि ने उक्त चरित्र का निर्माण किया है । इसीसे कवि ने प्रत्येक सन्धि पुष्पिका में उसे नेमिचन्द्रानुमत लिखा है, जैसा कि उसके निम्न पुष्पिका वाक्य से प्रकट है :
"इय सिरि वड्ढमाण तित्थयरदेवरिए पवरगुणरयणगुणभरिए विबुह सिरि सुकइसिरिहरविर इए सिरि गेमचंद प्रणुमण्णिए वीरणाह णिव्वाणगमणवण्णणो णाम दहमो परिच्छेओ सम्मत्तो।"
कवि ने प्रत्येक सन्धि के प्रारम्भ में जो संस्कृत पद्य दिये हैं उनमें नेमिचन्द्र को सम्यग्दष्टि, धीर, बुद्धिमान, लक्ष्मीपति, न्यायवान, और भव-भोगों से विरक्त बतलाते हुए उनके कल्याण की कामना की गई है। जैसा कि उसकी आठवीं सन्धि के प्रारंभ के निम्न श्लोक से प्रकट है :
यः सदृष्टि रुदारुधीरधिषणो लक्ष्मीमता संमतो। न्यायान्वेषणतत्परः परमतप्रोक्तागमासंगतः जनेकाभव-भोग-भंगुरवपुः वैराग्यभावान्वितो, नन्दत्वात्सहि नित्यमेवभुवने श्रीनेमिचन्द्रश्चिरम् ॥
१ विक्कम गरिदं सुप्रसिद्ध कालि; ढिल्ली पट्टणि धरण-कण विसालि ।
स एवासि एयारह सएहि, परिवाडिए वरिसहं परिगएहि । कसणडमोहिं आगहण मासि; रविवार समाणिउं सिसिर भासि ।। १२--१५