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ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
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कवि ने इस ग्रन्थ को विक्रम संवत् १९६० में ज्येष्ठ कृष्णा पंचमी शनिवार के दिन बनाकर समाप्त किया है "। इस से एक वर्ष पहले सं० १९८६ में पार्श्वनाथ चरित नट्टल साहुकी प्रेरणा से बनाया | चन्द्रप्रभचरित सं० १९८६ से पूर्व बन चुका था, संवत् १९८७ या ११८८ में बनाया हो । और संभवतः १९८६ में ही शान्तिनाथ चरित की रचना की है, इसी से उसका उल्लेख सं० १९६० के वर्धमान चरित में किया है । कवि ने अन्य किन ग्रन्थों की रचना की, यह अभी अन्वेषणीय है । ये दोनों चरित ग्रंथ उपलब्ध नहीं हैं ।
मृतचन्द्र (द्वितीय)
यह महामुनि माधवचन्द्र मलधारी के शिष्य थे, जो प्रत्यक्ष धर्म, उपशम, दम, क्षमा के धारक और इन्द्रिय तथा कपायों के विजेता थे, और उस समय 'मलधारि देव' के नाम से प्रसिद्ध थे। अमृत चन्द्र इन्हीं माधव चन्द्र के शिष्य थे। यह महामुनि प्रमृत तप तेज रूपी दिवाकर, व्रत नियम तथा शील के रत्नाकर थे । तर्क रूपी लहरों से जिन्होंने परमत को कोलित कर दिया था - डगमगा दिया था, जो उत्तम व्याकरण रूप पदों के प्रसारक थे। जिनके ब्रह्मचर्य के तेज के आगे कामदेव भी छिन गया था - वह उनके समीप नहीं आ सकता था । इसमें उनके पूर्ण ब्रह्मचर्य निष्ठ होने का उल्लेख मिलता है। इनके शिष्य सिंह कवि ने जब अमृत चन्द्र विहार करते हुए बह्मणवाड नगर् (सिरोही) में आये तब सिद्ध कवि के अपूर्ण एवं खण्डित 'प्रद्युम्न चरित' का उद्धार किया था। इनका समय विक्रम की १२वीं शताब्दी है ।
ता मलधारो देउ मुणि-पुंगमु, णं पच्चक्ख धम्मु उवसमु दमु । माहवचंद श्रासि सुपसिद्धउ, जो खम-दम जम-नियम- समिद्धउ । तासु सीसु तव तेय तिवायरु, वय-तव-नियम- सोल-रयणायरु । तक्क - लहरि कोलिय परमउ, वर वायरण -पवर पसरिय पउ । जासु भुवणदूरंतरु वं किवि, ठिउ पच्छष्णु मयणु श्रासं किवि । अमियच णामेण मडारउ, सोविहरंतु पत्तु बुह -सारउ | सस्सिर-णंदण-वण-संछण्णउ, मठ-विहार- जिणभवण रवण्णउ । म्हण वाडउ णामें पट्टणु । जैनग्रन्थ प्र० सं० भा० २ पृ० २१
मल्लिषेणमलधारी
यह द्रमिलसंघ नन्दिगण प्ररुङ्गलान्वय के वादीभसिंह अजितमेन पंडित देव और कुमारमेन के शिष्य थे । तथा श्रीपाल त्रैविद्य के गुरु थे । मल्लिपण बड़े तपस्वी थे । उनका शरीर बारह प्रकार के प्रचण्ड तपश्चरण का धाम था । और वह धूल धूसरित रहता था, उसका वे कभी प्रक्षालन नहीं करते थे । उन्होंने श्रागमोक्त रत्नत्रय का आचरण किया था और निःशल्य होकर प्रशेष प्राणियों को क्षमाकर जिनपाद मूल में देह का परित्याग किया था— सन्यास विधि द्वारा शक सं० १०५० के कीलक संवत्सर में (सन् १९२८ ई०) में श्रवण बेलगोल में तीन दिन के अनशन से मध्याह्न में शरीर का परित्याग किया था। जैसा कि मल्लिषेण प्रशस्ति के अन्तिम पद्यों से स्पष्ट है:
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श्राराध्य रत्न- त्रयमागमोक्तं विधाय निश्शल्यमशेष जन्तोः I क्षमां कृत्वा जिनपादमूले देहं परित्यज्य दिवं विशामः ॥ ७१ ॥ शाके शून्यश राबरावनिमिते संवत्सरेकीलके, मासे फाल्गुण के तृतीय दिवसे वासं सितेभास्करे ।
१ णिव विक्कमाइच्च हो कालए, रिगब्बुच्छववर तूर खालए ।
यारह सहि परि विगर्याह, संवच्छर सय गवहि समय हि ।
जेट्ट पढम पक्खई पंचमिदिणे सूरुवारे गयणं गरि ठिइमगे ॥ जैन ग्रंथ प्र० सं० भा० २०१७८