________________
३०५
ग्यारहवीं और बारहवी शताब्दी के विद्वान, आचार्य किये हैं, इससे इतना तो स्पष्ट है कि ईसा को १२वी और वि० को १३वीं शताब्दी में ज्ञानार्णव का खूब प्रचार हो गया था।
हेमचन्द्राचार्य ने अपना योग शास्त्र स० १२०७ में बनाया है। उससे पूर्व नहीं। जब कि ज्ञानार्णव उससे बहुत पहले बन चुका था। ऐसी स्थिति में योगशास्त्र के पद्यो का ज्ञानार्णवकार द्वारा उद्धत करने का कोई प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता। यद्यपि दोनों के पद्यों में बहुत कुछ साम्य है, उस साम्यता का कारण हेमचन्द्र के मामने योग विपयक अनेक ग्रन्थ वन चके थे। वे उनके सामने थे ज्ञानार्णव भी उनमें था। हेमचन्द्र को उनसे अवश्य साहाय्य मिला है। ज्ञानार्णव हेमचंद्र के सामने रहा है। ज्ञानार्णव में जनेतर ग्रन्थों में योग-विषयक जो पद्य लिये गये हैं। संभव है वे ग्रन्थ हेमचन्द्र को भी प्राप्त हा हों, और ज्ञानार्णव गे हेमचन्द्र ने भी सहयोग लिया हो तो क्या प्राश्चर्य?
पाटन के भंडार में ज्ञानार्णव की एक प्रति मं० १२८४ को लिखी हई प्रति मौजद है। जिसे जाहिणी प्रायिका ने किसी शुभचन्द्र योगी को प्रदान की थी। वह प्रति अन्य किसी प्रति में प्रतिलिपि की हई है। क्योंकि ज्ञानार्णव उसमे पूर्व बना हया था। और उममे बहत पहले प्रचार में आ गया था। ऐगी स्थिति में उम प्रति को ग्रन्थ रचना के आस-पाम समय की प्रति नहीं कहा जा सकता। और न उस पर से कोई निर्णय हा किया जा सकता है। हेमचन्द्र के ग्रन्थों पर अन्य साहित्यकारों के साहित्य का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित है। इससे इंकार नही किया जा सकता। दार्शनिक ग्रन्थों में प्रमाण मीमांसा के निग्रह स्थान के निरूपण और खण्डन के ममूने प्रकरण में और अनेकान में दिये ग्राट दोपों के परिहार प्रमंग में प्रभाचन्द्र के प्रमेयकमलमार्तण्ड का गब्दशः अनुसरण किया गया है। प्रमाण मीमांसा के प्रायः प्रत्येक प्रकरण पर प्रमेयरत्नमाला की शब्द रचना ने अपनी स्पष्ट छाप लगाई है। मी स्थिति में यह कहना किसी तरह भी शक्य नही है कि हेमचन्द्र ने ज्ञानार्णव से कुछ नही लिया।
इन्द्रकीति कुन्दकुन्दान्वय समह मुखमंडन देशीयगण के विद्वान थे। इनकी अनेक उपाधियां थीं-श्री मदमहच्चरण. सरसिहभंग, कोण्डकून्दान्वय समूह मुखमंडन, देशीयगण कुमुदवन, को कलिपुरेन्द्र, त्रैलोक्य मल्ल, सदासरसिकलहस, कविजनाचार्य, पण्डित मुखाम्बुम्ह चण्डमातण्ड सर्वशास्त्रज्ञ, कविकुमुदराज त्रैलोक्य मल्लेन्द्र कीतिहरि मूर्ति । इन विशेषणों से इन्द्र काति की महत्ता का स्पष्ट बोध होता है। गगराजा दुविनीत द्वारा निर्मापित मन्दिर को इन्द्र कीति ने कुछ दान दिया था।
यह शिलालेख कागलि जिला बेल्लारी ममूर का हे जिसका समय शक मं० ६७७ सन् १०५५ (वि० सं० १११२) है।
(इ० ५० ५५, १६२६ पृ०७४, इ० म० वेल्ला० १६६)
केशवनन्दि बलगारगण मेघनन्दि भट्टारक के शिष्य थे। उस समय समस्त भुवनाश्रय, श्रो पृथ्वी वल्लभ, महाराजाधिराज परमेश्वर, परम भट्टारक ओर मत्याश्रय कुल तिलक आदि अनेक उपाधियों के धारक त्रलाक्यमल्ल के प्रवर्द्धमान राज्य में वनवामीपुर में महामण्डलेश्वर चामुण्डरायरस वनवामी १२००० पर शामन कर रहा था. तब बलिलगावे गजधानी में शक सं० ६७० (सन् १०४८) सर्वधारी सम्बतसर ज्येष्ठ शुक्ला त्रयोदशो आदित्यवार के दिन प्रप्टोपवासि भट्टारक को वसदि में पूजा करने के लिये, 'भेरुण्ड' दण्ड (माप) जिड्ड लिंगे-सत्तर में प्राप्त धान (चावल) के क्षेत्र का दान केशवनन्दि को दिया।
- जैन लेख सं०भा० २ पृ० २२१
कुलचन्द्रमुनि मूलसंघान्वय क्राणूरगण के परमानन्द सिद्धान्तदेव के शिष्य थे। भुवनैकमल्ल के मुपुत्र ने जिस समय उनका राज्य प्रवर्धमान था। ओर जो बंकापुर में निवास करते थे और उन पादपद्मोपजीवी चालक्य पेर्माडे भुवनैक वीर उदयादित्य शासन कर रहे थे। तव भुवनैक मल्ल ने शान्ति नाथ मन्दिर के लिये उक्त कलचन्द्र मनि को नागर खण्ड में भूमिदान दिया। चूंकि यह शिलालेख शक स०६६६ सन् १०७४ (वि० सं० ११३१) का है। अतः उक्त मुनि ईसा को ११वीं और विक्रम की १२वीं शताब्दी के पूर्वार्ध के विद्वान हैं।'
१. जैन लेख सं० भा० २ पृ० २६४-६५ ।