SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 340
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०६ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ कोतिवर्मा यह मुनि देवचन्द का शिष्य था। यह देव चन्द संभवतः वह हैं जो राघवपाण्डवीय काव्य के कर्ता श्रतकीति विद्य देव के सम सामयिक थे (श्रव० लेख नं० ४०)। यह चालुक्य वंशीय (सोलंकी) त्रैलोक्य मल्ल का पुत्र था, इसने सन १०४४ से १०६८ तक राज्य किया है । इसके चार पुत्र थे, जयसिंह, विष्णु वर्द्धन, विजयादित्य और कीर्तिवर्मा। इनकी माता का नाम केतलदेवी था, जो जैन धर्म निष्ठा थी, वह जिन भक्ति से ओत-प्रोत थी. उसने भक्तिवश सैकडों जिन मन्दिर बनवाए थे। तथा जैनधर्म की प्रभावना के अनेक कार्य किये थे। उसके बनवाए हए जिन मन्दिरों के खण्डहर और उनमें प्राप्त शिलालेख उसका काति का स्मरण कराते हैं। कोतवमों के से इस समय केवल एक ही 'गोवैद्य' नाम का ग्रन्थ प्राप्त है, जिसमें पशुओं के विविध रोगों और उनकी चिकित्सा का वर्णन है। इस ग्रन्थ के एक पद्य में कवि ने अपने पापको कीर्तिचन्द्र, वरिकरिहरिकन्दर्पमति, सम्यक्त्वरत्नाकर, बुधभव्य बान्धव, कविताब्धिचन्द्र और कीर्तिविलास आदि विशेपणों से उल्लेखित किया है 'वैरिरिहरि' विशेषण से ज्ञात होता है कि वह एक वीर योद्धा था। मुनि पद्मसिंह उन्होंने अपना कोई परिचय नहीं दिया। किन्तु अपने ग्रन्थ 'णाणसार' (ज्ञानसार) को अन्तिम गाथा में बताया है कि अपने मन के प्रतिबोधनार्थ और परमात्म स्वरूप की भावना के निमित्त श्रावणशुक्ला नवमी वि० सं०१०६६ सन १०२६ में अंबक नगर (अंबड नगर) में ग्रन्थ की रचना की है। ग्रन्थ की गाथा संख्या ६३ है और उसे ७४ श्लोक परिमाण बतलाया गया है । ग्रन्थ में ध्यान विषय का कितना ही उपयोगी वर्णन है। ३६ वी गाथा में बतलाया है कि जिस प्रकार पाषाण में सुवर्ण और काप्ठ में अग्नि दोनों बिना प्रयोग के दिखाई नहीं पड़ते उसी प्रकार ध्यान के बिना प्रात्मा का दर्शन नहीं होता और इससे ध्यान का महात्म्य, एवं लक्ष्ण स्पष्ट जान पड़ता है। ग्रन्थ स्वपर-सम्बोधक है। ७वं पद्य में बतलाया है कि जिस तरह दाढ और नखरहित सिंह गजेन्द्रों का हनन करने में समर्थ नहीं होता। उसी तरह ध्यान के बिना योगी कर्म के क्षपण में समर्थ नहीं होता। अतः कर्मवन को दग्ध करने के लिए ध्यान की अत्यन्त आवश्यकता है, ध्यान एकान्त स्थान में ही संभव है, मन की चंचलता ध्यान में बाधक है । मुनि पद्मसिंह विक्रम की ११ वीं शताब्दी के विद्वान हैं। पद्मनन्दि मलधारि मूलसंघ, देशीयगण, पुस्तगच्छ और कौण्डकुन्दान्वय के विद्वान थे। उन्होंने पार्श्वनाथ की मूर्ति की स्थापना की थी। सन् १०८७ में जब चालुक्य सम्राट् त्रिभुवनमल्ल कल्याण मे राज्य कर रहे थे। उस समय चालुक्य विक्रम वर्ष प्रभव संवत्सर की पुण्य अमावस्या रविवार को उत्तरायण संक्रान्ति के अवसर पर पुण्डर के महामण्डलेश्वर अत्तरस ने तिकप्प दण्ड नायक को पार्श्वनाथ को पूजा के लिये भूमि,उद्यान और कुछ अन्य प्राय के साधनों का दान दिया था। अत: पपनन्दि मलधारि का समय सन् १०८७ (वि० सं० ११५४) है।३। चन्द्रप्रभाचार्य-शक सं०६५ सन् १०७२ के एक स्तम्भ लेख में भाद्रपद कृष्णा ८ शनिवार के दिन चन्द्रप्रभाचार्य के स्वर्गवास का वर्णन है। -जैन लेख सं० भा० ५ पृ०३२ श्रुतकीति-कुन्दकुन्दान्वय देशीगण के विद्वान आचार्य श्री कीर्ति के शिष्य थे। यह अपने समय के बडे विद्वान, शास्त्रार्थ विचारज्ञ, व्याख्यातत्व, और कवित्वादि गुणों में प्रसिद्ध थे। इनकी कीति जगत्त्रय में व्याप्त थी। १. रिणयमण पडिवोहत्थं परमसरुवस्स भावण णिमितं । सिरि पउमसिंह मुणिरणा रिणम्मवियं णाणसारमिरणं ॥६१ सिरिविककमस्स काले दशसम छासी जुयंमि वहमाणे। सावण सिय णवमीए अंवय एयरम्मि कयमेयं ।। ६२ २. परिमाणं च सिलोमा चउहत्तरि हंति णाणसारस्म । __ गाहाणं च तिसदी सुललिय बंघेण रइयारणं ॥६३ ३. रि० इ० ए० १९६०-६१ जैनलेख सं० भा० ५ पृ० ३४
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy