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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
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की गई है। ग्रन्थ आधुनिक सम्पादन की वाट जोह रहा है।
पत्र-परीक्षा-इसमें दर्शनान्तरीय पत्र लक्षणों की समालोचना पूर्वक जैन दृष्टि से पत्र का सुन्दर लक्षण किया है। प्रतिज्ञा और हेतु को अनुमानाङ्ग प्रतिपादित किया है।
__सत्य शासन-परीक्षा-इसमें पुरुषाद्वैत आदि १२ शासना की परीक्षा की प्रतिज्ञा की गई है। किन्तु : शासनों की परीक्षा पूरी और प्रभाकर शासन की अधूरी परीक्षा उपलब्ध होती है। यह ग्रंथ डा० गोकुलचन्द जी के सम्पादकत्व में भारतीय ज्ञानपीठ काशी से प्रकाशित हो चका है।
श्री पुरपार्श्वनाथ स्तोत्र-यह ३० पद्यात्मक स्तोत्र ग्रन्थ है। जिसमें श्रीपुर' के पार्श्वनाथ का स्तवन किया गया है। इसमें विद्यानन्द ने स्रग्धरा, शार्दूल विक्रीडित, शिखरिणी और मन्दा कान्ता छन्दों का प्रयोग किया है। इस स्तोत्र में समन्तभद्राचार्य के देवागमादिक स्तोत्र जैसी ताकिक शैली को अपनाया गया है। और कपिलादिक में अनाप्तता बतलाकर पार्श्वनाथ में प्राप्त पना सिद्ध किया गया है, और उनके वीतरागत्व, सर्वज्ञत्व और मोक्षमार्गप्रणेतत्व इन प्रसाधारण गुणों की स्तुति की गई है। रूपकालंकार की योजना करते हुए प्राराध्य देव को प्रशंसा की गई है।
यथा शरण्यं नाथाऽर्हन भव-भव भवारण्य-विगति-च्युता नामस्माकं निरवर-वर कारुण्य-निलयः। यतो गण्यात्पुण्याच्चिरतरमपेक्ष्यं तव पदं, परिप्राप्ता भक्त्या वयमचल-लक्ष्मीगृहमिदम् ॥२६
हे नाथ ! हे अर्हन् ! आप संसाररूपी वन में भटकने वाले हम संसारी प्राणियों के लिये शरण हों, आप हमें अपना आश्रय प्रदान कर संसार परिभ्रमण से मुक्त करें, क्योंकि आप पूर्णतया करुणानिधान हैं । हम चिरकाल से आप के पदों की अपेक्षा कर रहे हैं। प्राज बड़े पुण्योदय से मोक्ष लक्ष्मी के स्थान भूत पाप के चरणों की भक्ति प्राप्त हई है।
स्तोत्र में भाषा का प्रवाह और उदात्त शैली मन को अपनी पोर प्राकृष्ट करती है। यह स्तोत्र पं० दरबारी लाल जी की हिन्दी टीका के साथ वीर सेवा मन्दिर से प्रकाशित हो चुका है ? प्राचार्य विद्यानन्द का समय
प्राचार्य विद्यानन्द ने अष्टसहस्री के प्रशस्ति पत्र में कुमारसेन की उक्तियों से उसे प्रवर्धमान बतलाया है। इससे विद्यानन्द कुमारसेन के उत्तरवर्ती हैं। कुमार सेन का समय ७८३ से पूर्ववर्ती है। क्योंकि कुमारसेन का स्मरण पुन्नाटसंघी जिनसेन (शक सं० ७०५-सन् ७८३) ने हरिवंश पुराण में किया है । इससे कुमारसेन वि० सं० ८४० से पूर्ववर्ती हैं। उस समय उनका यश वर्धमान होगा। अत: विद्यानन्द का समय सन् ७७५ से ८४० प्रमाणित होता है। प्राचार्य विद्यानन्द ने तत्त्वार्थश्लोक वार्तिक की अन्तिम प्रशस्ति में निम्न पद्य दिया है :--
'जीयात्सज्जनताऽऽश्रयः शिव-सुधा धारावधान-प्रभुः, ध्वस्त-ध्वान्त-ततिः समुन्नतगतिस्तीव-प्रतापान्वितः । प्रो ज्योतिरिवावगाहनकृतानन्तस्थितिर्मानतः,
सन्मार्गस्त्रितयात्मकोऽखिलमलः-प्रज्वालन-प्रक्षमः ॥'३० इस पद्य में विद्यानन्द ने जहां मोक्षमार्ग का जयकार किया है। वहां उन्होंने अपने समय के गंगनरेश शिवमार द्वितीय का भी यशोगान किया है। शिवमार द्वितीय पश्चिमी गंगवंशी श्रीपूरुष नरेश का उत्तराधिकारी और उसका पुत्र था, जो ई० सन् ८१० के लगभग राज्य का अधिकारी हुया था। इसने श्रवण बेलगोल की छोटी
१. प्रस्तुत श्रीपुर धारवाड जिले का शिरूर नाम ही श्रीपुर हो। क्योंकि शक सं०६६८ (ई. सन ७७६) में पश्चिमी गंगवंशी राजा श्री पुरुष के द्वारा श्रीपुर के जैन मन्दिर के लिये दिये जाने वाले दान का उल्लेख करने वाला एक ताम्रपत्र मिला है।
-(जन सि० भा० भा० ४ कि०३ पृ १५८) वर्जेस और हण्टर आदि अनेक पाश्चात्य लेखकों ने वेसिंग जिले के सिरपुर' को प्रसिद्ध तीर्थ बतलाया है । और पार्श्वनाथ के प्राचीन मन्दिर होने की सूचना की है। संभव है इसी नगर के पार्श्वनाथ की स्तुति विद्यानन्द ने की हो। और महाराष्ट्र देश का श्रीपर नगर जहाँ के अन्तरीक्ष पार्श्वनाथ का मन्दिर भिन्न ही हो। जिसके कुएं के जल में एलग राय (श्रीपाल) का कुष्ट रोग दूर हआ था। इस सम्बन्ध में अन्वेषण करने की आवश्यकता है।
२. देखो हरिवंश पुराण १-३८
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