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पारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
२६६ अलंकारों का चयन दो प्रकार का पाया जाता है, एक चमत्कारिक और दूसरा ग्वाभाविक । प्रथम का उदाहरण निम्न प्रकार है :
भारह-रण-भूमिव स-रहमीस हरि प्रज्जुण पउल सिंहडिदोस । गुरु प्रासत्थाम कलिंग चार गय गज्जिर ससर-महीससार । लंका नयरी व सरावणीय चंदणहि चार कलहावणीय ।
सपलास-सकंचण अक्ख अडढ सविहीसण-कइकुल फल रसड़ढ़। इन पद्यों में विन्ध्यावटी का वर्णन करते हए इलेप प्रयोग मे दो अर्थ ध्वनित होते है–स रह-रथ सहित और एक भयानक जीवन हरि-कृष्ण पीर सिह, अर्जुन और वक्ष नहल और नकुल जीव, शिखडि और मयुर आदि ।
स्वाभाविक विवेचन के लिये पांचवीं सन्धि मे शृगार मूलक वीर रस का उदाहरण निम्न प्रकार हैकेरल नरेश मगांक की पुत्री विलामवती को रत्नशेखर विहाधर गे सरक्षित करने के लिये जबूकमारले ही यट करने जाते हैं। पीछे मगध के शामक श्रेणिक या बिम्बमार की सेना भी सजधज के साथ युद्धस्थल में पहुंच जाती है. किन्तु जंबूकुमार अपनी निर्भय प्रकृति और अमाधारण धैर्य के साथ युद्ध करने को प्रोत्तेजन देने वाली वीरोक्तियाँ भी कहते हैं तथा अनेक उदात्त भावनाओं के साथ सैनिकों की पत्निया भी युद्ध में जाने के लिये उन्हें प्रेरित करती हैं। युद्ध का वर्णन भी कवि के शब्दों मं पढिये।
अक्क मियंक सक्क कंपावणु, हा मुय सीयहे कारणे रावणु। दलिय दप्प दप्पिय मइ मोहणु, कवणु अणत्थु पत्तु दोज्जोहणु। तुज्झु ण दोसु वइव किउ धावइ, अणउ करतु महावइ पावइ । जिह जिह दड करंविउ जंपइ, तिह तिह खेयरु रोसहि कंपइ। घद्र कंठ सिरजालु पलित्तउ, चंडगंड पासेय पसित्तउ। दट्ठा हरु गुंजज्जलु लोयणु, पुरु दुरंत णासउ भयावणु। पेक्खे वि पहु सरोसु सण्णामहि, वुत्तु वोहरु मंतिहि तामहि । अहो प्रहा हूय हूय सासस गिर, जंपइ चावि उद्दण्ड गभिउ किर। अण्णहो जीह एह कहो वग्गए, खयर वि सरिस गरेस हो अग्गए। भणइ कुमारु एह रइ लुद्धउ, वसण महण्णवि तुम्महि छुद्धउ ।
रोसन्ते रिउहियच्छु विणा सुणइ, कज्जाकज्ज बलाबलु ण मुणइ। प्रस्तुत ग्रन्थ की भापा प्रांजल, मुबोध, सरस और गम्भीर अर्थ को प्रतिपादक है, और इसमें पूष्पदन्तान महाकवियों के काव्य-ग्रन्थों की भाषा के समान ही प्रोढ़ता और अर्थ गौरव की छटा यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होती है।
जम्बूस्वामी अन्तिम केवली हैं। इसे दिगम्बर श्वेताम्बर दोनो ही मम्प्रदाय निविवाद रूप से मानते हैं और भगवान महावीर के निर्वाण में जम्बू स्वामी के निर्माण तक की परम्परा भी उभय सम्प्रदायों में प्राय एक-सी है किन्तु उसके बाद दोनों में मतभेद पाया जाता है। जम्बू स्वामी अपने समय के ऐतिहासिक महापुरुष हरा हैं। वे काम के असाधारण विजेता थे। उनके लोकोत्तर जीवन की झांकी ही चरित्रनिष्ठा का एक महान आदर्श रूप जगत को प्रदान करती है। उनके पवित्रतम उपदेश को पाकर ही विद्युच्चर जैसा महान चोर भी अपने चौर कर्मादि दुष्कर्मों का परित्याग कर अपने पांच सौ योद्धाओं के साथ महान तपस्वियों में अग्रणीय तपस्वी हो जाता है और व्यंतरादि कृत महान उपसर्गों को ससघ साम्यभाव से सहकर सहिष्णुता का एक महान आदर्श उपस्थित करता है।
उस समय मगध देश का राजा बिम्बसार या थेणिक था, उसकी राजधानी राजगह थी, जिसे वर्तमान में
१. देखो जैन ग्रन्थ प्रशस्ति मग्रह भा० २ का ५४ पृष्ठ का टिप्पण।
२. दिगम्बर जैन परम्परा मे जम्बू म्वामी के पश्चात् विष्णु नन्दि, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाह ये पांच श्रतकेवली माने जाते है। किन्तु श्वेताम्बर परम्पग में प्रभव, शय्यभव, यशोभद्र, आर्यसभूतिविजय और भद्रबाहु इन पाच श्रतकेवलियो का नामोल्लेख पाया जाता है । इनमे भद्रबाहु को छोड़ कर चार नाम एक दूसरे में बिल्कुल भिन्न है।