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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
लोग राजगिर के नाम से पुकारते हैं। ग्रन्थकर्ता ने मगधदेश और राजगह का वर्णन करते हए वहाँ के राजा श्रेणिक बिम्बसार के प्रतापादि का जो संक्षिप्त परिचय दिया है वह इस प्रकार है :
चंड भजदंड खडिय मंडलिय मंडली विसड्ढे । धारा खंडण भीयव्व जयसिरी वसइ जस्स खग्गंके ॥१॥ रे रे पलाह कायर मुहई पेक्खइ न संगरे सामी। इय जस्स पयावद्योसणाए विहडंति वइरिणो दूरे ॥२॥ जस्स रक्खिय गोमंडलस्स पुरुसुत्तमस्स पद्धाए।
के केसवा न जाया समरे गय पहरणा रिउणो ॥३॥ अर्थात् जिनके प्रचंड भजदंड के द्वारा प्रचंड माडलिक गजानों का समूह खंडित हो गया है। जिसने अपनी भजाओं के बल में मांडलिक गजाओं को जीत लिया है। और धाग खडन के भय मे ही मानो जयश्री जिसके खङ्गाङ्क में वसती है।
___राजा श्रेणिक मंग्राम में युद्ध मे संत्रम्त कायर पुरुषों का मुख नहीं देखते। रे, रे कायर पुरुपो ! भाग जाप्रो-इस प्रकार जिसके प्रताप वर्णन मे ही शत्र दूर भाग जाते हैं। गो मण्डल (गायों का समूह) जिम नरह पुरुषोत्तम विष्ण के द्वाग रक्षित रहता है। उसी तरह वह पथ्व मण्डल भी गुरुपों में उत्तम राजा थेणिक के द्वाग रक्षित रहता है, राजा श्रेणिक के समक्ष युद्ध में ऐसे कोन शत्र मुभट है, जो मृत्यु को प्राप्त नहीं हुए, अथवा जिन्होंने केशव (विष्ण) के आगे प्रायुधरहित होकर आत्म-समर्पण नहीं किया।
इस ग्रन्थ का कथा भाग वहत ही सुन्दर, सरग तथा मनोरजक है, और कवि ने काव्योचित मभी गुणों का ध्यान रखते हुए उसे पटनीय बनाने का यत्न किया है । कथा का संक्षिप्त सार इस प्रकार है.:--
कथासार
जम्ब द्वीप के भरत क्षेत्र में मगध नाम का देश है, उसमें श्रेणिक (बिम्बमार) नामका राजा राज्य करता था। एक दिन राजा श्रेणिक अपनी सभा में बैठे हुए थे कि वनमाली ने विपुलाचलपर महावीर स्वामी के समवसरण पाने की सूचना दी। श्रेणिक मूनकर हपित हया और उसने मेना आदि वैभव के साथ भगवान का दर्शन करने के लिए प्रयाण किया। श्रेणिक ने ममवसरण में पहुंचने में पूर्व ही अपने रामम्न वैभव को छोड़कर पैदल ममवसरण में प्रवेश किया और वर्द्धमान भगवान को प्रणाम कर धर्मोपदेश सुना। इमो समय एक तेजस्वी देव अाकाश मार्ग में प्राता हुआ दिखाई दिया । गजा थेणिक द्वारा इस देव के विषय में पूछे जाने पर गोतम स्वामी ने बतलाया कि इसका नाम विद्युन्माली है और यह अपनी चार देवांगनाओं के साथ यहां वन्दना करने के लिये पाया है । यह आज से ७व दिन स्वर्ग मे चयकर मध्यलोक में उत्पन्न होकर उमी मनुष्यभव मे मोक्ष प्राप्त करेगा। राजा यणिक ने इस देव के विपय में विशेप जानने की इच्छा व्यक्त की, तब गौतम स्वामी ने कहा कि--इस देश में वर्द्धमान नामका एक नगर है। उसमें वेद घोष करने वाले, यज्ञ में पशुबलि देनेवाले, सोम पान करने वाले, परस्पर कटु वचनों का व्यवहार करने वाले, अनेक ब्राह्मण रहते थे। उनम अत्यन्त गुणज्ञ एक ब्राह्मण दम्पति श्रुतकण्ठ आयं वसु रहता था। उसकी पत्नी का नाम सोमशर्मा था। उममे दो पुत्र हुए थे। भवदत्त और भवदेव । जब दोनों की आयु क्रमशः १८ और १२ वर्ष हुई, तब आर्य वम् पूर्वोपाजित पापकर्म के फल स्वरूप कुष्ट रोग से पीड़ित हो गया और जीवन से निराश होकर चिता बनाकर अग्नि में जलमरा । सोमशर्मा भी अपने प्रिय विरह से दुःखित होकर चिता में प्रवेशकर परलोक वासिनी हो गई । कुछ दिन बीतने के पश्चात उस नगर में 'सुधर्म' नाम के मुनि का आगमन हुना। मुनि ने धर्म का उपदेश दिया, भवदत्त ने धर्म का स्वरूप शान्त भाव से रना, भवदत्त का मन ससार में अनुरक्त नहीं होता था। अतः उसने प्रारम्भ परिग्रह से रहित दिगम्बर मुनि बनने की अपनी अभिलाषा व्यक्त की और वह दिगम्बर भूनि हो गया । और द्वादशवर्ष तपश्चरण करने के बाद भवदत्त एक बार संघ के साथ अपने ग्राम के समीप चा। और अपने कनिष्ठ भ्राता भवदेव को संघ में दीक्षित करने के लिए उक्त वर्धमान ग्राम में