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नवमी दशवीं शताब्दी के आचार्य
२४५ मुनीन्द्र के शिष्य थे । इन्हें शक सं० ८६७ शुक्रवार के दिन (5 th December ६४५ A.D) पूर्वीय चालुक्य अम्मा द्वितीय या विजयादित्य षष्ठ का जो चालुक्य भीम द्वितीय वंगी (vengi) के राजा का पुत्र और उत्तराधिकारी था, और जिसने ई० सन् ६७० (वि० सं० १०२७) तक राज्य किया। यह राजा जैनियों का संरक्षक था। महिला चामकाम्ब की प्रेरणा से, जो पट्टवर्धक घराने की थी। और अर्हनन्दी की शिष्या थी, उस राजा ने कलु चुम्बरु नामका एक ग्राम सर्व लोकाश्रय जिनभवन के हितार्थ अर्हनन्दी के पाद प्रक्षालन पूर्वक प्रदान किया। इनका समय ईसा की १०वों शताब्दी है।
___ धर्मसेनाचार्य धर्मसेनाचार्य-यह चन्द्रिकावाट वंश के विद्वान थे। इनका आचार निर्मल था और इनकी बड़ी ख्याति थी । श्री ए. एफ. पार० हानले के द्वारा प्रकाश में लाई गई पट्टावलियों में से एक में चन्द्रिकपाट गच्छ का निर्देश काणूरगण और सिंहसंघ से सम्बन्धित था। जैसे हनसोग अन्वय का नाम हनसोग नामक स्थान से निसृत हुआ है। उसी तरह चन्द्रिकावाट भी संभव है किसी स्थान विशेष का नाम हो । देसाई महोदय का सुझाव है कि बीजापुर जिले के सिन्द की ताल्लुके में जो वर्तमान में चन्द्रकवट नामका गांव है, यह वही हो सकता है।
मूलगूण्ड से प्राप्त एक शिलालेख में लिखा है कि वीरसेन के शिष्य कनकसेन सूरि के कर कमलों में एक भेंट दी गई । वीरसेन चन्द्रिकावाट के सेनान्वय के कुमारमेन के मुख्य शिष्य थे । संभव है वे कुमारमेन वही हों, जिन्होंने मूलगुण्ड नामक स्थान पर समाधिपूर्वक मरण किया था। इनका समय ईसा की हवीं और विक्रम की १०वीं शताब्दी का पूर्वार्ध हो सकता है।
इन्द्रनन्दी (श्रु तावतार के कर्ता) प्रस्तुत इन्द्रनन्दी ने अपना परिचय और गुरु परम्परा का कोई उल्लेख नहीं किया। और न समय ही दिया। श्रतावतार के कर्ता रूप से इन्द्रनन्दी का कोई प्राचीन उल्लेख भी मेरे अवलोकन में नहीं पाया। ऐसी स्थिति में उनके समय-सम्बन्ध में विचार करने में बड़ी कठिनाई हो रही हैं।
उनकी एक मात्र कृति 'श्रतावतार' है, जो मूलरूप में माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला से तत्त्वानु शासनादि संग्रह में प्रकाशित हो चुका है। जिसमें संस्कृत के एक सौ सतासी श्लोक हैं। उनमें वीर रूपी हिमाचल से श्रुतगंगा का जो निर्मल स्रोत वहा है वह अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु तक अवच्छिन्न धारा एक रूप में चली आयी। पश्चात द्वादशवर्षीय भिक्षादि के कारण मत-भेद रूपी चट्टान से टकराकर वह दो भागों में विभाजित होकर दिगम्बर-श्वेताम्बर नाम से प्रसिद्ध है। दिगम्बर सम्प्रदाय में जो थुतावतार लिखे गये, उनमें इन्द्र नन्दी का थ तावतार अधिक प्रसिद्ध है। इसमें दो सिद्धान्तागमों के अवतार की कथा दी गई है । जिनपर अन्त को धवला और जयधवला नामकी विस्तृत टीकाएं, जो ७२ हजार और ६० हजार श्लोक परिमाण में लिखी गई हैं, उनका परिचय दिया गया है। उसके बाद की परम्परा का कोई उल्लेख तक नहीं है। प्रस्तुत इन्द्रनन्दी विक्रम की १० वीं शताब्दी के विद्वान हैं । ऐसा मेरा अनुमान है । विद्वान् विचार करें।
१. अहुकलि-गच्छ-नामा, बलहारिगण प्रतीत विख्यात यशाः । सिद्धान्त पारदृश्वा प्रकटित गुण सकलचन्द्र सिद्धान्त मुनिः । तच्छिष्यो गुणवान् प्रभुरमित यशास्सुमति रप्पपोटि मुनीन्द्रः ।। तच्छिष्यार्हनन्द्यङ्कितवर मूनये चामेकाम्बा सुभक्त्या । श्रीमच्छी सर्वलोकाश्रय जिनभवनख्यात सन्त्रार्थमुच्च ॥ ब्वेङ्गिनाथाम्मराजे क्षितिभृतिकलुचुम्बरु सुग्राममिष्टं ।
सन्तुष्टा दापयित्वा बुधजन विनुतां यत्र जग्राह कीर्ति । -जैन लेख सं० भा० ३ कलुचुम्बरु लेख पृ० १८२ २. देखो चामुण्डराय पुराण पद्य १४