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________________ नवमी-दशवी शताब्दी के आचार्य १६१ दिनकर, णाग, धर्म, गणभद्र, कुशल, स्वयंभदेव, वीरवदक, सर्वनन्दि, कलिकाभद्र, णागदेव और भवनंदि। _इन कवियो में जैन जनतर प्राकृत गस्कृत और अपभ्रशभापकं कवि शामिन । जैसे गोविद, मल्लिपेण, चतुरानन, संघसेन वर्द्धमान, गिद्धगंन श्रीदत्त, धर्मगेन, जिनगेन, जिनदत्त, गणभद्र, स्वयभूदेव, सर्वनन्दि, नाग देव और भवनन्दि आदि जन कवि प्रतीन होते हैं। संभव है, इनमें पोर जी चार पाच नाम हों। क्योंकि उनका ग्रंथ परिचयादि के बिना ठीक परिज्ञान नहीं होता। इगसे यह भी स्पष्ट है कि उनसे पूर्व अनेक कवि अपभ्रश के भी हो गये हैं। इन में उल्लिखित गणभद्राचार्य राष्ट्रकट गजा कृष्ण द्वितीय के शिक्षक थे। गणभद्र का समय विक्रम की १० वीं शताब्दी का पूर्वाध है । हो सकता है कि स्वयभ गणभद्र के गमय नहीं रहे हो, किन्तु त्रिभुवन स्वयभू तो मौजद थे। इसी गे उन्होंने उनका नाममाग्य किया है। जिनमेन ने अपना हरिबा पूगण शक मं० ७०५ वि. सं. ८४० में बनाकर ममाप्त किया है । स्वयंभू ने जब अपना ग्रन्थ बनाया, उम ममय गणभद्र नहीं हागे । किन्तु हरिवंश पुराण के कर्ता के ममय तक वे अवश्य रहे होगे । अतः रिटमिर्चार उ के रचियता स्वयभू देव के समय की पूर्वावधि वि० से ८०० और उनरावधि वि० ग.१०० मानने में काई बाधा नही जान पड़ता। अतएव स्वयंभू विक्रम का ६ वीं शताब्दी के विद्वान होने चाहिये। यदि रयडा धनजय की बात स्वीकृत की जाय, तो राष्ट्रकूट ध्रव का राज्य काल वि. स८३७ स० ८५.१ नक रहा। इससे भी ग्वयभ देव का समय विक्रम की हवी शताब्दो का मध्य काल सुनिश्चित होता है । इमगे स्वयदेव पुनाट मघीय जिनसेन का प्रायः समकालीन जान पड़ते हैं। कन्नड़ कवि जयकीनिने 'छदोनुगासन' नाम का ग्रन्थ बनाया है, उसकी हस्तलिखित प्रति म० ११६२ की जैसलमेर के शास्त्र भडार में सुरक्षित है। यह ग्रथ एच डी० वेलकर द्वारा सम्पादित हो चुका है। .इस ग्रन्थ में कविने स्वयंभूछन्द के 'नन्दिनी' छन्द का उल्लेख किया है। कवि जय कौतिका समय विक्रम को दशवों शताब्दी का पर्वार्ध या नौवी शताब्दी का उपान्त्य होना चाहिये। क्योंकि दशवीं शताब्दी के कवि असग ने जयकोति का उल्लेख किया है। इससे भी स्वयंभू का समय हवी शताब्दी पाता है। रचनाएँ कवि स्वयंभू-त्रिभुवन स्वयंभू की तीन रचनाएं उपलब्ध हैं। पउम चरिउ, रिटणेमिचरिउ और स्वयंभू छन्द । इनमें पउमचरिउ या गमकथा बहत ही सुन्दर कृति है। इसमें 80 सन्धिया है, जो पांचकाण्डो में विभक्त हैं। विद्याधर काण्ड में २०, अयोध्याकाण्ड में २२, सुन्दर काण्ड में १४, और उत्तरकाण्ड में १३ सन्धियां हैं। जिनमें स्वयंभू देव रचित ८३ सन्धियां है। शेप उनके पुत्र त्रिभुवन स्त्रयभू द्वारा रची गई हैं। ग्रन्थ में प्रारम्भिक पीठिका के अनन्तर जम्बद्वीप की स्थिति, कुलकरी की उत्पत्ति, अयोध्या में ऋपभदेव की उत्पत्ति तथा जीवन परिचय, लंका में देवताओं और विद्याधरों के वश का वर्णन, अयोध्या में राजा दशरथ और राम-लक्ष्मण आदि की उत्पत्ति, बाल्यावस्था, जनक की पुत्री सीता से विवाह, गम-लक्ष्मण-सीता का वनवास, संबूक मरण, सीताहरण, रावण मे रामलक्ष्मण का युद्ध, गुग्रीव आदि गे राम का मिलाप, लक्ष्मण के शक्ति का लगना और उपचार आदि । विभीषण का राम से मिलना, रावण मरण, लंका विजय, विभीपण को राज्य प्राप्ति, राम-सीता-मिलन, अयोध्या को प्रस्थान भरत दीक्षा, व तपश्चरण, सीता का लोकापवाद से निर्वासन, लव-कुश उत्पत्ति, सीता की अग्नि परीक्षा दीक्षा और तपश्चरण, लक्ष्मण मरण, राम का शोकाकुल होना, और प्रवुद्ध होने पर दीक्षा लेकर तपश्चरण करके कैवल्य प्राप्ति ओर निर्वाण लाभ, आदिका सविस्तर कथन दिया हुआ है। इस ग्रन्थ में राम कथा का वहो रूप दिया है, जो विमलसूरि के पउम-चरिउ में प्रोर रविषेण के पद्मचरित में पाया जाता है। ग्रन्थ में रामकथा के उन सभी अंगों को चर्चा की गई है जिनका कथन एक महाकाव्य में मावश्यक होता है । इस दष्टि मे पउमचरिउ को महाकाव्य कहा जाय तो कोई अत्युक्ति न होगी। ग्रन्थ में कोई दुरूहता नहीं हैं. वह सरल और काव्य-सोन्दर्य की अनुपम छटा को लिये हुए हैं। समूचावर्णन काव्यात्मक-सौन्दर्य और सरसता से प्रोत प्रोत है, पढ़ते हुए छोड़ने को जी नहीं चाहता । कविता की शैली जहां कथा-सूत्र को लेकर आगे बढती है और वहां वह सरलता तथा स्वाभाविकता का १. जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह भा० २, प्रस्तावना पृ० ४६ ।
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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