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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
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REE है। इससे स्पष्ट है कि धवल कवि का समय विक्रम की ११वीं सदी है अर्थात् असग कवि १०वीं शताब्दी के पूर्वार्ध के विद्वान जान पड़ते हैं ।
रचना
कवि की एक मात्र कृति हरिवंश पुराण है, जिसमें १२२ सन्धियां हैं, जिनमें २२वे तीर्थकर यदुवंशी भगवान नेमिनाथ की जीवन-गाथा श्रकित की गई है, साथ ही, महाभारत के पात्र कौरव र पाण्डव एव श्रीकृष्ण प्रादि महापुरुषों का जीवन चरित भी दिया हुआ है। जिसमे महाभारत का ऐतिहासिक परिचय सहज ही मिल जाता है। ग्रन्थ की रचना प्रधानतः अपभ्रंश भाषा के 'पज्झटिका और अलिल्लह' छन्द में हुई है । तथापि उसमें पद्धडिया सोरठा, घत्ता, जाति नागिनी, विलासिनी और सोमराजी आदि छन्दों का प्रयोग हुआ है । काव्य की दृष्टि से ग्रन्थ के कितने ही वर्णन सजीव हैं। रसों में शृंगार, वीर, करुण और शान्त रसों के अभिव्यजक अनेक स्थल दिये हुए हैं। श्री कृष्ण और कंस के युद्ध का वर्णन भी सजीव हुआ है ।
हरिवंश पु० संधि ६०, ४
'महाचंडचित्ता भडाछिण्णगत्ता, धनुबाण हत्था सकुंता समत्था । पहारंति सूराण भज्जति धीरा, सरोसा सतोसा सहामा सग्रामा ॥ प्रचण्ड योद्धाओं के गात्र टूक-टूक हो रहे हैं, और धनुष बाण हाथ में लिये हुए भाला चलाने में समर्थ सूर प्रहार कर रहे हैं, परन्तु क्रोध, सन्तोप, हास्य श्रीर आशा मे युक्त धीरवीर योद्धा विचलित नही हो रहे हैं। युद्ध की भीषणता मे युद्ध स्थल विषम हो रहा है, सैनिकों की मारो मारो की ध्वनि से अवर गूज रहा है-रथवाला रथवाले की ओर, अश्ववाला अश्ववाले की ओर, और गज, गज की ओर दोड़ रहा है, धानुष्क वाला धानुष्क की ओर झपट रहा वाद्य जोर से शब्द कर रहे हैं। घोड़े हिन हिना रहे हैं, और हाथी चिंघाड़ रहे है'। इस तरह युद्ध का सारा ही वर्णन सजीव है ।
शरीर की नश्वरता का वर्णन भी दृष्टव्य है :
सवल राज्य भी तत्क्षण नष्ट हो जाता है । अत्यधिक धन से क्या किया जाय ? राज्य भी धनादिक से हीन और बचे खुचे जन समूह अत्यधिक दीनता पूर्ण वर्तन करते हुए देखे जाते है। सुखी बान्धव, पुत्र, कलत्र मित्र सदा किसके बने रहते हैं, जैसे उत्पन्न होते हैं वैसे ही मेघवर्षा से जल के बुलबुलों के समान विनष्ट हो जाते हैं । और फिर चारों दिशाओं में अपने निवास स्थान को चले जाते हैं, जिस तरह पक्षी रात्रि में एक जगह इकट्ठे हो जाते हैं और फिर चारों दिशाओं में अपने अपने निवास स्थान को चले जाते है, अथवा जिस प्रकार बहुत में पथिक (नदी पार करते हुए) नौका पर मिल जाते है फिर सब अपने अपने अभीष्ट स्थान को चले जाते है ।
इसी तरह इष्ट प्रियजनों का समागम थोड़े समय के लिये होता है । कभी धन आता है और कभी दारिद्र स्वप्न समान भोग आते और नष्ट हो जाते हैं, फिर भी अज्ञानी जन इनका गर्व करते हैं । जिस योवन के साथ जरा ( बुढ़ापे का सम्बन्ध है उससे किसको सन्तोष हो सकता है।
वलु रज्जु वि णासइ तक्खणेण कि किज्जइ बहुएण वि धणेण । रज्जु वि धणेण परिहीणु होइ, निविसेण विदीसह पयडुलोउ ।
१.
"हरण हा मारु मारु पभरतहि । दलिय धरति रेणु हि धायउ, पिसलुद्धउ लुद्धउ आयउ ।
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X रह रह गयहु गय धाविउ, घाणुक्कहु घाणुक्कु परायउ । तुरतुरग कुखग्गविहस्थउ, असिवक्खरहु लग्गु भयचत्तउ । वहि गहिरतर हर्याहिसहि गुलु गुलतु गयवरबहुदीसहि ||
- संधि - १०
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