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ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
२७५ सुहिबंधव-पुत्त-कलत्त-मित्त, णवि कासुवि दीसहि णिच्चहंत । जिम हुति भरंति प्रसेस तेम, बुब्बुव जलि घणि वरिसंति जेम । जिम सउणि मिलि वि तरुवर वसति, चाउद्दि सिणिय वसाणि जंति । जिम बहु पंथिय णावई चइंति, पुणुि णिय णिय वासहु ते वलंति । तिम इठ्ठ समागमु णिव्वडणु, धणुहोइ होइ दालिदु पुणु । धत्ता-सुविणासउ भोउ लहो वि पुणु, गव्वु करंति प्रयाण गर । संतोसु कवणु जोव्वण सियइ, जहिं अत्थइ अणुलग्गजरा।
. मधि-६१-७ ग्रन्थकार का जहां लोकिक वर्णन मजीव है, वहां वीर गम का शान्त रम में परिणत हो जाना भी चित्ताकर्षक है। ग्रन्थ पठनीय और प्रकाशन के योग्य है। इसकी प्रतिया कारजा, बडा तेगपंथी मन्दिर जयपुर पार दिल्ला के पंचायती मन्दिर में है, परन्तु दिल्ली की प्रति अपूर्ण है ।
जयकोति मूल मंघ देशीयगण होतगे गच्छ के विद्वान थे । जो पुस्तकान्वयरूपी कमल के लिये सूर्य के ममान थे । और अनेक उपवास और चान्द्रायण व्रत करने में प्रसिद्ध थे। रामस्वामी प्रदत्तदान के अधिकारा थ । चिक्कहनसोंगे का यह लेख यद्यपि काल निर्देश हित है । और शान्तीश्वर वर्माद के बाहर दरवाजे पर उन्कीणित है। सम्भवतः इनका पानुमानिक समय ११०० ई० के लगभग हो सकता है।
- (जैन लेख म० भा० २ पृ०३५७)
ब्रह्मसेन व्रतिप ब्रह्मसेन प्रतिप--मूल मघ, वरमेनगण और पोगरिगच्छ के विद्वान थे । इनके शिष्य प्रायसेन और प्रशिप्य महासेन थे । ब्रह्मसेन बड़े विद्वान तपस्वी थ । अनेक राजा उनके चरणों की पूजा करते थे। महामेन के शिष्य चाङ्कि राजने जो वाणसवश के थे, अोर केतल देवी के प्रांफिसर थे। उन्होंने शांतिनाथ, पार्श्वनाथ और सुपार्श्व तीर्थकर की वेदियों को पौन्नवार्ड में त्रिभवन तिलक नाम के चैत्यालय में बनवाया। उनके लिये शक सं९७६ (मन १०५४ ई.) में जमीन और मकान दान किये । इनका समय ईसा की ११वी शताब्दी है।
मुनिश्रीचन्द्र--- लाल बागड संघ और बलात्कारगण के प्राचार्य श्रीनन्दी के शिप्य थे। और धारा के निवासी थे। उन्होंने अपना पुराणसार वि० म०१०८० (मन् १०२३) में बनाकर समाप्त किया है । रविण के पद्मचारत को टीका को भी उन्होंने वि० स० १०८७ में धारा नगरी में राजा भोजदेव के राज्यकाल में बनाकर समाप्त किया है। तीसरी कृति महाकवि पुष्पदन्त के उत्तरपुराण का टिप्पण है, जिसे उन्होंने, सागरमेन नाम के सेद्धान्तिक विद्वान से महापुराण के विषम-पदों का विवरण जानकर और मूल टिप्पण का अवलोकन कर, वि० सं०
१. जैन लेख सं० भा०२पृ ० २२७ २. धागयापुरि भोजदेव नृपते गज्ये जयात्युच्चकैः ।
श्री मत्सागरमेनतो यतिपते ज्ञात्वा पुगणं महत् । मुक्त्यर्थं भवभीनिभीतजगता श्रीनन्दि शिष्यो बुधः । कुर्वे चारुपुराणमारममलं श्रीचन्द्रनामामुनिः ।। श्रीविक्रमादित्य संवत्सरे (अशीत्यधिकवर्षमहस्र पुगणसागभिधानं समाप्तं । -देखो पुरागसार प्रशस्ति ३. लालबागड श्री प्रवचनमेन पडितात्पमचरितस्मक! (नमाकर्ण्य ?) बलात्कारगरण श्रीनन्द्याचार्यसत्कविशिष्येण श्री
चन्द्रमुनिना श्रीमविक्रमादित्य सवत्सरे समाशील्यधिक वर्ष सहस्र श्रीमद्धारायां श्रीमतो राज्ये भोजदेवस्य ..."। एवमिदं पद्मचरित टिप्पणं श्रीचन्द्रमुनिकृतं समाप्तमिति ।