________________
१५वीं, १६वीं, १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य भट्टारक, और कवि
५३७ नागौर से कविवर वैराट पाये । और वे वहाँ के पार्श्वनाथ जिनमन्दिर में रहने लगे। वह नगर उन्हें प्रति प्रिय हुआ । वहाँ लाटी संहिता के निर्माण करते समय उनके दिल में एक ग्रन्थ बनाने का उत्साह जागृत हुआ।
पंचाध्यायो-कवि ने इम ग्रन्थ की पांच अध्यायों में लिखने की प्रतिज्ञा की थी। वे उसका डेढ अध्याय ही बना सके खेद है। कि बीच में ही आयु का क्षय होने मे वे उसे पूरा नहीं कर सके । यह समाज का दुर्भाग्य ही है। कवि ने आचार्य कुन्द कुन्द और अमनचन्द्राचार्य के ग्रन्थों का दोहन करके इस ग्रन्थ की रचना की है। ग्रन्थ में द्रव्य सामान्य का स्वरूप अनेकान्त दृष्टि मे प्रतिपादित किया गया है। और द्रव्य के गुण पर्याय तथा उत्पाद व्यय ध्रौव्य का अच्छा विचार किया है। द्रव्य क्षेत्र काल-भाव की अपेक्षा उगके स्वरूप का निबधि चिन्तन किया है। नयों के भेद और उनका स्वरूप, निश्चय नय और व्यवहार नय का स्पष्ट कथन किया है। खासकर सम्यग्दर्शन के विवेचन में जो विशेषता दप्टिगोचर होतो है वह कवि के अनुभव को द्योतक है। वास्तव में कवि ने जिस विपय का स्पर्श किया उसका सागोपांग विवेचन स्वच्छ दर्पण के समान खोलवर सप्ट रख दिया है । ग्रन्थ राज के कथन की विशेषता अपूर्व ओर अदभत है। उसमें प्रवचनसार का सार जो समाया हुआ है, जो दोनो ग्रन्थों की तुलना से स्पष्ट है। उस ममय कवि का स्वानुभव बढ़ा हना था । यदि ग्रन्थ पूरा लिखा जाना ता वह एक पूर्ण मोलिक कृति होती । ग्रन्थ को कथन शैली गहन और भाषा प्रौढ है। ग्रन्थ अध्ययन पोर मनन करने के योग्य है । वर्णी ग्रन्थमाला से इसका प्रकाशन हुआ है।
कवि का समय ११ वी गताब्दी है।
कवि शाह ठाकुर वंश परिचय-कवि की जाति खंडेलवाल और गोत्र लूहाच्या या लुहाडिया था। यह वंश राज्यमान्य रहा है। शाह ठाकुर साह सील्हा के प्रपुत्र अोर साहु ग्यता के पुत्र थे, जो देव-शास्त्र-गुरु के भक्त और विद्याविनोदी थे. उनका विद्वानों से विदोप प्रेम था। कवि सगीत शास्त्र, छन्द अलंकार आदि में निपुण थे और कविता करने में उन्हें आनन्द प्राता था। उनकी पत्नी यति पोर थावकों का पोपण करने में सावधान थी, उसका नाम 'रमाई था। याचक जन उसको कोनि का गान किया करते थे। उसके दो पुत्र थे गोविन्ददास ओर धर्मदास । इनके भी पुत्रादिक थे। इस तरह शाहठाकुर का परिवार सम्पन्न परिवार था। इनमें धर्मदास विशेष धर्मज्ञ और सम्पूर्ण कुटुम्ब का भार वहन करने वाला, विनयो और गुरु भक्त था। महापुराण कलिका की प्रशस्ति में उनका विस्तत परिचय दिया हुआ है।
गरु परम्परा-मूल सघ, सरस्वती गच्छ के भट्टारक प्रभाचन्द्र, पद्मनन्दी, शुभचन्द्र, जिनचन्द्र, प्रभाचन्द चन्द्रकोति प्रोर विशानकाति के शिष्य थे। इनके प्रगुरु भ० प्रभाचन्द्र जिनचन्द्र के पट्टधर थे, जो षट तर्क में निपुण तथा कर्कश वाग्गिरा के द्वारा अनेक कवियों के विजेता थे, पोर जिनका पट्टाभिषेक सं० १५७१ में सम्मेद शिखर पर सुवर्ण कलशों से किया गया था । इन्ही प्रभाचन्द्र के पट्टधर भ० चन्द्रकीति थे। इनका पट्टाभिषेक भी उक्त सम्मेद शिखर पर हुआ था । लक्ष्मणगढ़ के दिगम्बर जैन मन्दिर में एक पाषाण मूर्ति है जिसे सं० १६. में खंडेल वश के शाह छाजू के पुत्र नारण मन के पुत्र गूजर ने मूलसर नंद्याम्नाय के भट्टारक चन्द्रकीति द्वारा प्रति.
१. पट्टावती के ३२,३३,३४ पद्यों में प्रभाचन्द्र के सम्मेद गिग्वर पर होने वाले पट्टाभिषेक का वर्णन है। उसके बाद निम्न ३५ वें पद्य में चन्द्रकीति के पट्टाभिषेक का कथन किया गया है । श्री मत्प्रभाचन्द्र गणीन्द्र पट्टे भट्टारक श्री मुनि चन्द्रकीतिःसंस्स्रापितो योऽवनिनाथवृन्दः सम्मेद नाम्नीह गिरीन्द्र मूनि ॥३५ प्रस्तुत प्रभाचन्द्र चित्तौड़ की गद्दी के भट्टारक थे, और चन्द्रकीति का पट्टाभिषेक १६२२ में सम्मेद शिखर पर हमा था। इनकी जाति खंडेलवाल और गोत्र गोधा था। इस पट्टावली में विशालकीर्ति का उल्लेख नहीं है।