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१५वी, १६वी, १७वी, और १८वी शताब्दी के आचार्य, भट्टारक और कवि
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रचनाएं
कवि रइधू ने अपभ्रश भाषा में अनेक ग्रन्थो की रचना की है। उनमें से उपलब्ध रचनात्रों का संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है :
१. अप्प सम्बोहकव्व-यह कवि की सबसे पहली कृति ज्ञात होती है। क्योकि इसकी २६ पत्रात्मक एक हस्तलिखित प्रति मं० १४४८ की आमेर भडार मे उपलब्ध है। इस प्राथमिक रचना को प्रात्मसम्बोधार्थ लिखो हैं इसमें ३ संधिया और ५८ कड़वक है। जिनमे हिमा अणव्रतादि पच व्रतो का कथन किया गया है। और बतलाया है कि जो दोष रहित जिन देव, निर्ग्रन्थगुरु और दशलक्षण रूप अहिमा धर्म का श्रद्धान (विश्वास) करता है वह सम्यक्त्वरत्न को प्राप्त करता है :
जिणदेव परमणिगंथगुरु, दहलक्णधम्मु अहिंसयरू ।
सोणिच्छ उभावे सहसइ, सम्मत्त-रयण फड सोलहइ॥ इसके पश्चात पच उदम्बर फन और मद्य-मास-मधु के त्याग को अष्टमूल गुण बतलाया है। और इस प्रथम संधि में अहिमा, सत्य और अनोयं रूप तीन अणवतो के स्वरूप का कथन दिया है। दूसरी सधि में चतुर्थ अणुव्रत ब्रह्मचर्य का वर्णन किया है। तृतीय सधि में भगवान महावीर का नमस्कार कर कर्मक्षय के हेत् परिग्रह परिमाण नाम के पाचवे प्रणवत के कथन करने को प्रतिज्ञा की है।
____सम्मत्त गुणरिणहारण-यह ग्रन्थ ग्वालियर निवासी साहु खेमसिह के ज्येष्ठ पुत्र कमल सिह के अनुरोध से बनाया गया है। इस ग्रन्थ में ४ सधि पार १०८ कड़वक दिये हुए है, उनकी अनुमानिक श्लोक सख्या तेरह सौ पचहत्तर के लगभग है । ग्रन्थ का श्राद्यन्त प्रशस्ति में साह कमल मिह के परिवार का परिचय दिया हुआ है। इसमें सम्यक्त्व के आठ अगी में प्रसिद्ध होने वाले प्रमुख पुरुषो की रोचक कथाए बहुत ही सुन्दरता से दी गई है ये कथाएं पाठको
का वर्णन दिया है। यह स्थान ही अग्रवाल जाति वा मून निवाग ग्थान था। यहा के निवासी देशभक्त वीर अग्नवाली ने यूनानी, शक, कुपाण, हरण और मुसलमान आदि विदेशी प्राक्रमण कारिपो में अनक शताब्दियो तक जमकर लोहा लिया था। मुहम्मद गौरी के आक्रमण के समय (मवत् १२५१) में वही प्राचीन राज्य पूर्णतया विनष्ट हो गया था। और यहा के निवासी अग्रवाल प्रादि राजस्थान और उत्तर प्रदेश आदि मे वस गए थे ।
कहा जाता है कि अनोहा मे अग्रमेन नाम के एक क्षत्रिय गजा थे । उन्ही की सन्तान परम्परा अग्रवाल कहलाते है । अग्नवाल गब्द के अनेक अर्थ है । किन्तु यहा उन अर्थो की विवक्षा नहीं है, यहा अग्रदंग के रहने वाले अर्थ ही विवक्षित है । अग्रवालो के १८ गोत्र बतलाये जातो। जिनमे गर्ग, गोयल, मिनल िन्दल, मिहल आदि नाम है। अग्रवालों में दो धर्मों के मानने वाले पाये जाते है। जैन अग्रवान योर वैष्णव अग्रवाल । श्री लोहाचार्य के उपदेश मे उस समय जो जैनधर्म में दीक्षित हो गय थे, वे जैन अग्रवाल कहलाये और शेष वैष्णव, परन्तु दोनो मे गेटी बटी व्यवहार होता है, रीति रिवाजो में कुछ समानता होते हा भी उनमे अपन-अपने धर्मपरक प्रवत्ति पाई जाती हे हॉ मभी अग्रवाल हिमा धर्म के मान्नेव ले है। उपजातियो का इतिवृत्त १. वी शताब्दी मे पूर्व का नही मिलता, हो सकता है कि कुछ उपजातियाँ पूर्ववर्ती रही हो। अग्नवाली की जन परम्पग के उल्लेख १२वी शताब्दी तक के मेरे देखने मे आए है। यह जाति खूब सम्पन्न रही है। लोग धर्मज्ञ, आचार्ग-प्ठ दयालु और जन-धन से स पन्न नथा राज्यमान्य रहे है । तोमर बंशी गजा अनगपाल तृतीय के राज श्रेष्ठी और ग्रामात्य अग्रवाल कुलावतश साह नट्टल ने दिल्ली मे आदिनाथ का एक विशाल सुन्दरतम मदिर बनवाया था, जिमका उ लेग कवि श्रीधर अग्रवाल द्वाग रचे गये पावपूगण मे किया गया है । यह पाश्व पुराण सवत् ११८६ मे दिल्ली में उक्त नट्टल साह के द्वारा बनवाया गया था उसकी संवत् १५७७ को लिखित प्रति आमेर मडार मे सुरक्षित है । अग्रवालो द्वारा अनेक मन्दिरो का निर्माण तथा ग्रन्थों की रचना और उनकी प्रतिलिपि करवाकर साधुओ, भट्टारको आदि को प्रदान करने के अनेक उल्लेख मिलते है। इसमें इस जाति की
सम्पन्नता धनिष्ठा और परोपकारवृत्ति का परिचय मिलता है। हाँ, इनमे शासकवृत्ति अधिक पाई जाती है। १. लिपि सवत् १४४८ वष फाल्गुण वदि १ गुगै दिने स्रावग (श्रावक) लप्मण लक्ष्मण कभ्मक्षय विनावा (शा) र्थ लिखित । आमेर भडार