________________
जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
जिन सेनाचार्य को यह विश्वास हो गया कि अब मेरा जीवन समाप्त होने वाला है और मैं महापुराण को पूरा नहीं कर सकूंगा । तब उन्होंने अपने सबसे योग्य शिष्यां को बुलाया और उनसे कहा कि सामने जो यह सूखा वृक्ष खड़ा है, इसका काव्यवाणी में वर्णन करो । गुरु वाक्य सुनकर उनमें से एक शिष्य ने कहा 'शुष्क काष्ठ तिष्ठत्यग्रे' । फिर दूसरे शिष्य ने कहा- "नीरसतरुरिह विलसति पुरतः " । गुरु को द्वितीय वाक्य सरस ज्ञात हुआ । अतः उन्होंने उसे श्राज्ञा दी कि 'तुम महापुराण को पूरा करो । गुणभद्र ने गुरु प्राज्ञा को स्वीकार कर महापुराण को पूरा किया।
१८४
श्राचार्य गुणभद्र ने लिखा है कि इस ग्रन्थ का पूर्वार्ध ही रसावह है, उत्तरार्ध में तो ज्यों-त्यों करके ही रस की प्राप्ति होगी । गन्ने के प्रारम्भ का भाग ही स्वादिष्ट होता है ऊपर का नहीं । यदि मेरे वचन सरस या सुस्वादु हों तो इसे गुरु का माहात्म्य ही समझना चाहिये। यह वृक्षोंका स्वभाव है कि उनके फल मीठे होते हैं । वचन हृदय से निकलते हैं और हृदय में मेरे गुरु विराजमान हैं। वे वहां से उनका सस्कार करेगे हो । इसमें मुझे परिश्रम न करना पड़ेगा । गुरुकृपा से मेरी रचना संस्कार की हुई होगी। जिनसेन के अनुयायी पुराण मार्ग के प्रथम से ससार समुद्र के पार होना चाहते हैं फिर मेरे लिये पुराण सागर के पार पहुचना क्या कठिन है ।
उत्तर पुराण का रचना काल
श्राचार्य गुणभद्र ने उत्तर पुराण में उसका कोई रचना काल नहीं दिया । उनको प्रशस्ति २७ वें पद्य तक समाप्त हो जाती है। पांच-छह श्लोकों में ग्रन्थ का माहात्म्य वर्णन करने के अनन्तर २७ व पद्य में बनाया है कि भव्यजनों को इसे सुनना चाहिये, व्याख्यान करना चाहिये, चिन्तवन करना चाहिये, पूजना चाहिये, और भक्तजनों को इसकी प्रतिलिपियाँ लिखना लिखाना चाहिये । यहीं गुणभद्राचार्य का वक्तव्य समाप्त हो जाता है । जान पड़ता है उन्होंने उसका रचनाकाल नहीं दिया । उनका समय शक सं० ८२० से पूर्ववर्ती है । उस समय अकाल वर्ष के सामन्त लोकादित्य बंकापुर राजधानी से सारे वनवास देशका शासन कर रहे थे। तब शक सं० ८२० पिंगल नाम के संवत्सर में पंचमी (श्रावण वदी ५) बुधवार के दिन भव्य जीवों ने उत्तर पुराण की पूजा की थी । गुणभद्राचार्य के शिष्य मुनि लोकसेन ने उत्तरपुराण की रचना करते समय अपने गुरु को 'सहायता की ।
श्रात्मानुशासन में २६६ श्लोक । जिनमें आत्मा के अनुशासन का सुन्दर विवेचन किया गया है । यह गुणभद्राचार्य की स्वतंत्र कृति है । इसमें सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तपरूप चार आराधनाओं का स्वरूप सरल रीति से दिया है । ग्रन्थ चर्चित विपय उपयोगो और स्व-पर-सम्बोधक है । ग्रंथ मनन करने योग्य है । इस पर पंडित प्रभाचन्द्र की एक संस्कृत टीका है जो संक्षिप्त और सरल है । ग्रन्थ हिन्दी और संस्कृत टीका के साथ जीवराज ग्रंथमाला शोलापुर से प्रकाशित हो चुका है। इसमें अनुष्टुप सहित आर्या, शिखरिणी, हरिणी, मालिनी, पृथ्वी, मन्द्राक्रान्ता वंशस्थ, उपेन्द्रा, रथोद्धता, गीति, वसन्ततिलका, स्त्रग्धरा, शार्दूलविक्रीडित ओर
१. इक्षो रिवाम्य पूर्वाद्धं मेवाभावि रसावहम् । यथातथास्तु निष्पत्तिरिति प्रारभ्यते गया || १४ २. गुरुरणामेव माहात्म्यं यदपि स्वादु मद्वचः । तरूणा हि स्वभावोऽसौ यत्फलं स्वाद जायते ।। १७
३. निर्यान्ति हृदयाद्वाचो हृदि मे गुरव स्थिताः ।
ते तत्र संस्कारिष्यन्ते तन्न मेऽत्र परिश्रमः ॥१८ ४. पुराणं मार्गमासाद्य जिनमेनानुगा ध्रुवम् ।
भवान्धेः पारमिच्छन्ति पुराणस्य किमु ते ॥ १e ५. शकनृप कालाभ्यन्तर विंशत्यधिकाष्ट शतमिताब्दान्ते । मंगलमहार्थ कारिणि पिंगल नामिनि समम्त जन सुखदे || ३५