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नवमी-दशवीं शताब्दी के आचार्य
१८३ मुनिराज थे । राष्टकूट राजा अमोघवर्ष ने गुणभद्राचार्य को अपने द्वितीय पुत्र कृष्ण का शिक्षक नियुक्त किया था। इन्होंने जिनसेनाचार्य के दिवंगत हो जाने पर उनके अपूर्ण आदि पुराण को १६२० श्लोकों की रचना कर उसे परा किया था। उसके बाद उन्होने आठ हजार श्लोक प्रमाण 'उत्तर पुराण' की रचना की। उसकी रचना में गणभदाचार्य ने कवि परमेष्ठी के 'वागर्थ सग्रह' पुराण का आश्रय लिया था।
उत्तर पुराण में द्वितीय तीर्थकर अजितनाथ से लेकर २३ तीर्थकरों, ११ चक्रवर्ती, नव नारायण, नव बलभद्र और प्रतिनारायण तथा जीवंधर स्वामी आदि विशिष्ट महापुरुषो के कथानक दिये हए हैं। इस पुराण को कवि ने संभवत: बंकापुर में समाप्त किया था। प्रस्तुत बकापर अपने पिता वोर बंकेय के नाम से लोकादित्य द्वारा स्थापित किया गया। प्रपितामह मुकुल के वश को विकसित करने वाले सूर्य के प्रताप के साथ जिसका प्रताप सर्वत्र फैल रहा था, और जिसने प्रसिद्ध शत्रुरूपी अंधकार नष्ट कर दिया था, जो चेल्ल पताका वाला था जिसकी पताका में मयूर का चिन्ह था । चेलध्वज का अनुज था और चेल्ल केतन बंकेय का पुत्र था, जैनधर्म की वृद्धि करने वाला, चन्द्रमा के समान उज्वल यश का धारक लोका दित्य बंकापुर में वनवास देश का शासन करहा था।
उस समय बंकापुर वनवासि प्रान्तकी राजधानी था। और अनेक विशाल जिन मन्दिरों से सुशोभित था। यह नपतुगका सामन्त था, और वीर योद्धा था। इसने गगराज राजमल को युद्ध में पराजित कर बन्दी बनाया था। इस विजयोपलक्ष्य में भरी सभा में वीर बकेय को नृपतुग द्वारा अभीष्ट वर मांगने की प्राज्ञा हुई। तब जिनभक्त बकेय ने गदगद हो नपतुग से यह प्रार्थना की, कि अब मेरी कोई लौकिक कामना नहीं है। यदि आप देना ही चाहें तो कोलनर में मेरे द्वारा निर्मित जिनमंदिर के लिये पूजादि कार्य संचालनार्थ एक भूदान प्रदान कर सकते है। उन्होंने वैसा ही किया। बकेय का पत्नी विजयादेवी बड़ी विदूपी थी। इसने सस्कृत में काव्य रचना की है । इनका पूत्र लोकादित्य भी अपने पिताके समान ही वीर और पराक्रमी था। लोकादित्य शत्र रूपी अन्धकार को मिटाने वाला एक ख्याति प्राप्त शासक था। लोकादित्य पर गुणभद्राचार्य का पर्याप्त प्रभाव था। लोकादित्य जैन धर्म का प्रेमी था, और समूचा वनवासि प्रान्त लोकादित्य के वस में था।
प्राचार्य जिनसेन की इच्छा महापुराण को विशाल ग्रन्थ बनाने की थी। परन्तु दिवंगत हो जाने से वे उसे पूर्ण नहीं कर सके । ग्रन्थ का जो भाग जिनसेन के कथन से अवशिष्ट रह गया था, उसे निर्मल बुद्धि के धारक गुण भद्रसूरि ने हीनकाल के अनुरोध से तथा भारी विस्तार के भय से संक्षेप में ही संग्रहीत किया है।
उत्तर पुराण को यदि गुणभद्राचार्य प्रादि पुराण के सदृश विस्तृत बनाते तो महापुराण एक उत्कृष्ट कोटि का महाभारत जैसा एक विशाल ग्रन्थ होता। किन्तु आयु काय आदि की स्थिति को देखते हुए वे उसे जल्दी पूर्ण करना चाहते थे। इसी से उसमें बहुत से कथन मौलिक और विस्तृत नही हो पाये हैं, और कितने ही कथानकों से मुख मोड़ना पड़ा है । कुछ कथानकों में वह विशदता भी शीघ्रता के कारण नहीं लासके हैं। फिर भी उनका उक्त प्रयत्न महान और प्रशंसनीय है।
१. तस्सय सिम्सो गुणव गुणभद्दो दिव्वणारण परिपुण्णी।
पक्खोववाम मंडी महातवो भालिगो व ॥ -दर्शनसार २. देखो, डा० अल्तेकर का गष्ट्रकूटाज और उनका समय पृ० ३. चेल्लपताके चेल्लध्वजानुजे चेल्लकेतनतनूजे । जैनेन्द्रधर्मवृद्धे विधायिनिविधुवीध्र पृथु यशसि ।।
-उत्त० पु० प्रशस्ति ३३ ४. "सरस्वती व कर्णाटी विजयांका जयत्यमौ ।
या वक्ष्मा गिरां वासः कालिदासादनन्तरम् ।।' ५. अति विम्तर भीरुत्वादवशिष्ट सङ गहीत ममलधिया। गुणभद्र सूरिणेदं–प्रहीणकालानुरोधेन ॥
-उत्तर० पु० प्रश० २०