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पांचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक के आचार्य
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सं० ३८० (वि० सं० ५१५) में कांची नरेश सिंहवर्मा के २२वें संवत्सर में, जब उत्तराषाढ़ नक्षत्र में शनैश्चर, वृषभ में वृहस्पति, और उत्तरा फाल्गनि में चन्द्रमा अवस्थित था, तथा शुक्ल पक्ष था। पाणराष्ट्र के पाटलिक ग्राम में पूराकाल में सर्वनन्दि ने लोक विभाग की रचना की थी। सिंह वर्मा पल्लव वंश के राजा थे। और कॉची उनकी राजधानी थी। संस्कृत लोक विभाग के वे प्रशस्ति पद्य इस प्रकार है :
वैश्वे स्थिते रविसुते वृषभे च जीवे । राजोत्तरेषु सितपक्ष मुपेत्य चन्द्रे । ग्रामे च पाटलिक नामनि पाणराष्ट्र, शास्त्र पुरालिखितवान्मुनि सर्वनन्दी। संवत्सरेतु द्वाविशे काञ्चीश-सिह वर्मणः
प्रशीत्यग्रेशकाब्दानां सिद्धमेतच्छत त्रये ॥४॥ तिलोयपण्णत्ती में 'लोक विभागाइरिया' वाक्य के साथ सर्वनन्दी के अभिमत का उल्लेख किया गया है।
आचार्य यतिवृषभ यह आर्य मंच के शिष्य और नागहस्ति क्षमाश्रमण के अन्तेवासी थे ।' उक्त दोनों प्राचार्यों को कसाय पाहुड की गाथा आचार्य परम्परा से प्राती हुई प्राप्त हुई थीं। और जिनका उन्हें अच्छा परिज्ञान था। यतिवृषभ ने उक्त दोनों गुरुपों के समीप गुणधराचार्य के कसाय पाहड सूत को उन गाथाओं का अध्ययन किया, और वह उनके रहस्य से परिचित हो गया था। अतएव उसने उन सूत्र गाथाओं का सम्यक अर्थ अवधारण करके उन पर सर्वप्रथम छह हजार चणि-सूत्रों की रचना को । प्राचार्य वीरसेन ने उन्हें 'वृति सूत्र' का कर्ता बतलाया है। और उन से वर भी चाहा है। जिनकी रचना संक्षिप्त हो और जिनमें सूत्र के समस्त अर्थों का संग्रह किया गया हो, सूत्रों के ऐसे विवरण को वृत्ति सूत्र कहते हैं।
चूणि-सूत्रों के अध्ययन करने से जहां आचार्य यति वृषभ के अगाध पाण्डित्य और विशाल आगम ज्ञान का का पता चलता है। वहां उनकी स्पष्टवादिता का भी बोध होता है। चारित्र मोह क्षपणा अधिकार में क्षपक की प्ररूपणा करते हुए यव मध्य की प्ररूपणा करना आवश्यक था। पर वहां यव मध्य प्ररूपणा करने का उन्हें ध्यान नहीं रहा, किन्तु प्रकरण की समाप्ति पर चर्णिकार लिखते हैं-"जब मज्झं कायव्वं, विस्तरिदं लिहिदू (स. ९७६, प०८४०)। यहां पर यव मध्य की प्ररूपणा करना चाहिए थी। किन्तु पहले क्षपण-प्रायोग्य प्ररूपणा के अवसर में हम लिखना भूल गए । यह प्राचार्य यति वृषभ की स्पष्टवादिता और वीतराग वृत्ति का निर्देशन है।
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१. जो अज्ज मंख मीमो अंतवागी वि रणागहत्यिस्स । जय ध० पु० १ १०४
२. पुगो तायो चेव मुत्त गाहाओ आइग्यि परंपराग पागच्छमारणीओ अज्जमखू णागहत्थीणं पत्ताओ। पुरणो तेसि दोण्हं पिपाद भूने असीदिसद गाहाणं गुणहरमुहक मलविणिग्गयाणमत्थं सम्मं सोऊण जयिवसहभडारएण पवयरणवच्छलेण चुणि सुत्तं कयं ।'-(जय० पु०१ पृ०८८)
३. "पार्वे तयोर्डयोग्प्यधीत्य सूत्राणि तानि यतिवृषभः ।
यतिवृषभनामधेयो बभूवशास्त्रार्थनिपुणमतिः ।। तेन ततो यतिपतिना तद गाथा वृत्ति सूत्ररूपेण ।
रचितानि षट् सहवग्रन्थान्यथचूगिगसूत्राणि ।" -इन्द्रनन्दि श्रुतावतार-१५५, १५६ ४. 'मो वित्ति सुत्त कत्ता जइवमहा में बरं देऊ ॥' -(जय० ध० पु०१ पृ० ४) ५. सुत्तम्पेव विवरणाए सवित्त सदरयणाए संगहिय मुत्तासे सत्थाए वित्ति सुत्तववएसादो ।। जयधवला अ० ५० ५२