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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास भाग - २
जय धवलाकार प्राचार्य यतिवृषभ के वचनों को राग-द्वेष-मोह का अभाव होने से प्रमाण मानते हैं । यति वृषभ की वीतरागता और उनके वचनों के भगवान महावीर की दिव्यध्वनि के साथ एकरसता ' बतलाने से यह स्पष्ट है कि प्राचार्य परम्परा में यतिवृषभ के व्यक्तित्व के प्रति कितना समादर और महान प्रतिष्ठा का बोध होता है।
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आचार्य यति वृषभ विशेषावश्यक के कर्ता जिनभद्र गणि क्षमाश्रमण और पूज्यपाद से पूर्ववर्ती है । क्यों कि उन्होंने यतिवृषभ के प्रादेसकसाय विषयक मत का उल्लेख किया है। चूर्णि सूत्रकार ने लिखा है कि- 'आदेस कसाण जहा चित्त कम्मे लिहिदो कोहो रूसिदो तिवलिद णिडालो भिउडि काऊण ।' यह कसाय पाहुड के पेज्जदोस वित्ती नामक प्रथम अधिकार का ५६वाँ सूत्र है । इसमें बताया है कि क्रोध के कारण जिसकी भृकुटि चढ़ी हुई है और ललाट पर तीन वली पड़ी हुई हैं, ऐसे क्रोधी मनुष्य का चित्र में लिखित प्रकार आदेशकषाय है । किन्तु विशेषावश्यक भाष्यकार कहते हैं कि अन्तरंग में कषाय का उदय न होने पर भी नाटक आदि में केवल अभिनय के लिये जो कृत्रिम क्रोध प्रकट करते हुए क्रोधी पुरुष का स्वांग धारण किया जाता है, वह आदेश कषाय है । इस तरह से प्रदेश कषाय का स्वरूप बतलाते हुए भाष्यकार कसाय पाहुडचूर्णि में निर्दिष्ट स्वरूप का 'केई' शब्द द्वारा उल्लेख करते हैं
प्रासो कसानो कइयव कय भिउडि भंगुराकारो । केई चित्ता गइश्रो ठवणा णत्थंतरो सोऽयं ॥ २६८१
इसमें बताया है कि - कितने ही प्राचार्य क्रोधी के चित्रादि गत आकार को प्रदेशकषाय कहते हैं, परन्तु यह स्थापना कषाय से भिन्न नहीं है, इसलिये नाटकादि नकली क्रोधी के स्वांग को ही आदेशकषाय मानना चाहिये ।
श्राचार्य यतिवृषभ का पूज्यपाद (देवनन्दी) से पूर्ववर्तित्व होने का कारण यह है कि पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में एक मत विशेष का उल्लेख किया है।
'श्रथवा एषां मते सासादन एकेन्द्रियेषु नोत्पद्यते तन्मतापेक्षया द्वादशभागा न दत्ता ।'
( सर्वा० सि० १ पृ० ३७, पाद टिप्पण ) जिन आचार्यों के मत से सासादन गुण स्थानवर्ती जीव एकेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होता है, उनके मत की अपेक्षा वारह वेद चौदह भाग स्पर्शन क्षेत्र नहीं कहा गया है।
सासादन गुण स्थानवर्ती जीव यदि मरण करता है तो वह एकेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होता, किन्तु नियम से देव होता है जैसा कि यतिवृषभ के निम्न चूर्णिसूत्र से स्पष्ट है
:
श्रासाणं पुण गदो जदि मरदि, ण सक्को णिरयर्गदं तिरिक्खर्गाद मणुसगदि वा गंतु । णियमा देव गदि गच्छदि । (कसा० अधि० १४ सूत्र १४४ पृ० ७२७ ) आचार्य यतिवृषभ के इस मत का उल्लेख नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने अपने लब्धिसार-क्षपणासार की निम्न गाथा में किया है :
:
जदि मरदि सासणो सो णिरय-तिरिक्खं परं ण गच्छेदि । णियमा देवं गच्छदि जइवसह मुणिदवयणेणं ॥
इस कथन से स्पष्ट है कि यतिवृषभ पूज्यपाद के पूर्ववर्ती हैं। पूज्यपाद के शिष्य वज्रनन्दिने वि० सं० ५२६ में द्रविड संघ की स्थापना की थी । अतः यतिवृषभ का समय ५२६ से पूर्ववर्ती है । अर्थात् वे ५वीं शताब्दी के विद्वान है ।
१. एदम्हादो विउलगिरिमत्थयत्थं वड्ढमाण दिवायरादो विणिग्गमिय गोदमलोहज्जजम्बुमामियादिआइरियपरंपराए प्रागंतू गुणहराइरियं पाविय गाहासरूवेण परिणमिय अज्जमंखू नागहत्थीहिंतो जावसह मुह णिमिय चुण्णिमुत्तायारेण परिणददिव्वणि किरणादो णव्वदे । - जय धव० भा० १ प्रस्ता० टि० पृ० ४६