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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
( वि० सं० १३२२ ) में त्रिकूट रत्नत्रय शान्तिनाथ के जिनालय के लिए होयसल नरेश नरसिह द्वारा उक माघनन्दि सैद्धान्तिक को 'वल्लनगेरे' नाम का गांव दान में दिया गया। इस कारण इस जिनालय को त्रिकूट रत्नत्रय जिनालय भी कहते थे । दोर समुद्र के जैन नागरिको ने भी शान्तिनाथ की भेंट के लिये भूमि और द्रव्य प्रदान किया था । इन माघनन्द की चार रचनाओं का उल्लेख मिलता है। सिद्धान्तमार, श्रावकाचारसार, पदार्थसार और शास्त्रसार समुच्चय-
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माघनन्दि योगीन्द्रः सिद्धान्ताम्बोधि चन्द्रमाः । श्रचीकर द्विचित्रार्थ शास्त्रसारसमुच्चयम् ।। उक्तं श्रीमूल संघ श्री बलात्कारगणाधिपैः ।
श्रीमानन्दि सिद्धान्तः शास्त्रसार समुच्चयम् ॥
ये दोनों पद्य दौर्बल जिनदास शास्त्री की टीका रहित प्रति में दिये हैं । इनका समय १३वीं शताब्दी है । इनके शिष्य कुमुदचन्द्र भट्टारक थे। शास्त्र समुच्चय के टोकाकार वही माघनन्दिश्रावकाचार के कर्ता है। टोका कन्नड़ में है ।
प्रेमी जी ने लिखा है कि मद्राम को ओरियन्टल लायब्रेरी में 'प्रतिष्ठाकल्प टिप्पण' या जिन संहिता नाम का एक ग्रन्थ है, उसकी उत्थानिका र अन्तिम पुषिका से मान्म होता है कि प्रतिष्ठान टिप्पण के कर्ता वादि कुमुदचन्द्र मानन्द सिद्धान्त चवर्ती के शिष्य थे ।
यह माघनन्दि सिद्धान्त चक्रवर्ती के पुत्र थे । और प्रतिष्ठाकल्प के कनाडी टिप्पणकार हैं । श्री माघनन्दि सिद्धान्त चक्रवति तनुभवः ।
कुमुदेन्दु रहं वच्मि प्रतिष्ठा कल्पटिप्पणम् ॥
इस टिप्पण के अन्त में लिखा है
वादि कुमुद चन्द्र
' इति श्री माघनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती सुत चतुविध पाण्डित्य चक्रवर्ति श्री वादि कुमुदचन्द्र पण्डितदेव - विरचिते प्रतिष्ठा कल्प टिप्पणे । इस पुप्पि का वाक्य में वादि कुमुदचन्द्र को स्पष्ट रूप से 'सत' और 'यात्रार्चन विधि: समाप्तः' पद्य में 'तनुभव' लिखा है, जिसमे वे उनके पुत्र थे । ओर उनकी उपाधि चतुवि पाण्डित्य चक्रवर्ती थी अतः इनका समय भी वही है जो माघनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती का सन् १२६५ (वि०स० १३२२) है । यह विक्रम की १४ वी शताब्दी के विद्वान है ।
कवि मंगराज
इनका जन्म स्थान वर्तमान मैसूर राज्यान्तर्गत मुगुलिपुर था । उन्हें उभय कवीश, कवि पद्म भास्कर और साहित्य वैद्या विद्याम्बुनिधि उपाधियाँ प्राप्त थी । यह कन्नड और संस्कृत दोनों भाषाओं के प्रौढ़ कवि थे । और जैन धर्म के पालक थे । इनका समय स्वर्गीय प्रार० नरसिंहाचार्य ने सन् १३६० ई० के लगभग बतलाया है । इनकी कृति का नाम 'खगेन्द्रमणि दर्पण है ।
यह एक वैद्यक ग्रन्थ है, इसमें स्थावर विपों की प्रक्रिया और प्रायः सभी विपों की चिकित्सा लिखी है।
१. जैन लेख सं० भाग ४पृ० २५६
२. श्री माघनन्दि सिद्धान्त तनुभवः ।
कुमुदेन्दुरहं वच्मि प्रतिष्ठा कल्प टिप्पणम् ।
३. इति श्री माघनन्दि सिद्धान्त चक्रवर्ती तनूभव चतुविध पाण्डित्य चक्रवर्ती श्रीवादि कुमुदचन्द्र मुनीन्द्र विरचिते जिन संहिता टिप्पर पूज्य पूजक पूजकाचार्य पूजाफल प्रतिपादनं समाप्तम् ॥