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तेरहवीं और चौदहवी शताब्दी के विद्वान. आचार्य और कवि
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गरुड़ पक्षी सर्पो का वेरी है वह मर्प विपापहारक है, यह लोक में प्रसिद्ध है उसा प्रकार गरुड़मणि भो लोक में विष निवारक मानी जाती है। उसी तरह यह ग्रन्थ भी विप दूर करने के उपाय को बतलाता है, इस कारण इसका यह नाम अन्वर्थक जान पड़ता है। यह ग्रन्थ कद वृत्तों में रचा गया है । कवि ने इसे 'जीवित चिन्तामणि' भी बतलाया है । कवि इस ग्रन्थ को पुरुषार्थ चतुष्टय का कथन करने वाला बतलाता है।
इसमें १६ अधिकार है । जिनमें विप और उमके दूर करने के उपायों का वर्णन है।
प्रथम अधिकार मे मगल के बाद स्थावर जगम और कृत्रिम ग्रादि विपों के भेद, सो को जातियाँ प्रोपधियों का संग्रह कान, भेद और उनकी शक्तियों के वर्णन के साथ सद वैद्य और दुवंद्य के लक्षणादि बतलाये गये हैं।
दूसरे अधिकार में स्थावर विपभेद, विपाक्रान्त लक्षण और उनके परिहारक नग्य, पान, लेप पोर अंजन आदि के प्रौपध और अनेक मत्र दिया है। इसी तरह अन्य मब अधिकारी में 'विप' के दश प्रकार, लक्षण, उनके भेद, विषापहारक मत्र ार ग्रोधियों का वर्णन किया गया है। ग्रन्ध पदि हिन्दी अर्थ के साथ प्रकाशित हो जाय तो उसका परिज्ञान हिन्दी भापा भापियों को भी मूलभ हो जायगा। ग्रन्थ उपयोगी है।
ग्रन्थ मे कवि ने अपने में प्रवत्तों कछ प्राचार्यो प्रादि का नामोल्लेख किया है पूज्यपाद, बोरमेन, कन्दकन्द भानुकोति, अमरक ति न च्छाप्य धर्ममाण श्रादि ।
पं० वामदेव यह मूल मघ के भद्रारक विनय वन्द्र के शिष्य, त्रैलोक्यकोनि के शिष्य पोर मुनि लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य थे इन्होंने अपने को इन्द्रवाम देव भी लिखा है। पडित वामदेव का कुल नैगम था। नेगम या निगम कल कायस्थों का है, इसमे स्पष्ट है कि पीडत बामदेव कायस्थ थे । अनेक कायस्थ विद्वान जैन धर्म के धारक हुए है। जिनमें हरिचन्द्र, पद्मनाभ ार विजयनाप माथ र ग्रादि का नाम उल्लेखनीय है। पडित वामदेव जैन धर्म के अच्छे विद्वान, प्रतिष्ठादि कार्या के ज्ञाता पार जिन भका में तत्पर थे । वामदेव ने पन मग्रह दोपक को प्रशस्ति में अपने को--'नाना शास्त्र विचार कोविद मति: श्री वामदेव : कृती' वाक्य द्वारा नाना शास्त्र विचार काविद मति प्रकट किया है।
इनकी इम समय तीन रचनाएं उपलब्ध है । भावसग्रह (सस्कृत), 'लोक्य दीपक' अोर पच मंग्रह दीपक। इनमें से केवल भावमग्रह माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला में प्रकाशित हया है। शेप दोनों रचना अप्रकाशित है।
भावसंग्रह-प्रस्तुत ग्रन्थ मस्कृत भाषा का पद्य ग्रन्य है, जा ७८१ पद्यों में पूर्ण हुअा है। यह देवमेन के प्राकृत भावमग्रह का मशाचिन और परिधित अनुवाद है। यह ग्रन्थ माणिकचन्द्र ग्रन्थ माला में प्राकृत भाव संग्रह के साथ प्रकायन हो च का है।
१. भूपाइधानम्य विश्वहित: श्री मूनमधः थिये, यत्राभूद्विनयेन्दुर द्धतगुण: गच्छील दुग्धार्गव: । नन्छिप्पोऽजनि भद्र मुनिग्मलम्चलोका कोनि शशी। येन कान्नमहातमः प्रमथिने स्याहादविद्याकरः ॥७७६ दृष्टि म्बस्तटिनी महीधरपनि नाब्धिचन्द्रोदयो, वृन श्री न.लि केलि हेमनलिन शान्ति क्षमा मन्दिरम् काम ग्वात्मरक्षा प्रसन्न हृदयः मंगक्षपा भास्कर - म्तच्छिाप: क्षितिमण्डले विजयते लक्ष्मीन्दु नामां मुनिः ॥७८० श्रो मत्मर्वजपू जाकरण परिणतम्तत्त्वचिन्ता रसालो, लक्ष्मीचन्द्राहि पद्म मधुकर: श्री वामदेव: सुधीः । उत्पत्ति य जाता शशिविशद कुले नैगमश्री विशाले । सोऽयं जीया प्रकामं जगति रमलसद्भाव शास्त्र प्रणेता ॥७८१
-भाव संग्रह प्रशस्ति