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यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
वादिराज सूरि की निम्न पांच कृतियाँ उपलब्ध हैं, जिनका संक्षित परिचय निम्न प्रकार हैपार्श्वनाथ चरित - यह १२ सर्गात्मक काव्य है, जो माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला में प्रकाशित हो चुका है । इसमें अनेक पूर्ववर्ती कवियों का उल्लेख है ।
यशोधर चरित - यह चार सर्गात्मक एक छोटा-सा खण्ड काव्य है । जिसके पद्यों की संख्या २६६ है । और जिसे तंजौर के स्व० टी० एस० कुप्पुस्वामी शास्त्री ने प्रकाशित किया था ।
एकीभावस्तोत्र - यह पच्चीस श्लोकों का सुन्दर स्तवन है, और जो एकीभावं गत इव मया से प्रारंभ हुआ है । स्तोत्र भक्ति के रस से भरा हुआ है और नित्य पठनीय है।
न्याय विनिश्चय विवरण - यह अकलंक देव के 'न्याय विनिश्चय' का भाष्य है । जैन न्याय के प्रसिद्ध ग्रन्थों में इसकी गणना है । इसकी श्लोक संख्या बीस हजार है । यह पं० महेन्द्र कुमार जी न्यायाचार्य के द्वारा सम्पादित होकर भारतीय ज्ञानपीठ काशी से प्रकाशित हो चुका है ।
प्रत्यक्ष, परोक्ष श्रौर
प्रमाण निर्णय - यह प्रमाण शास्त्र का लघुकाय स्वतंत्र ग्रन्थ है । इसमें प्रमाण, आगम नाम के चार अध्याय हैं । माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला से मूल रूप में प्रकाशित हो चुका है ।
अध्यात्माष्टक - यह प्राठ पद्यों का स्तोत्र है, माणिक चन्द्र ग्रन्थमाला से प्रकाशित है । पर निश्चयतः यह कहना शक्य नही है कि यह रचना इन्हीं वादिराज की है या अन्य की ।
त्रैलोक्यदीपिका - नाम का एक ग्रन्थ भी वादिराज का होना चाहिये। जिसका उल्लेख मल्लिषेण प्रशस्ति के - ' त्रैलोक्य - दीपिका वाणी' पद से ज्ञात होता है। श्रद्धेय प्रेमी जी ने अपने वादिराज वाले लेख में लिखा है कि स्वर्गीय सेठ माणिकचन्द्र जी के संग्रह में " त्रैलोक्य दीपिका" नामका का एक अपूर्ण ग्रन्थ है । जिसके आदि के दस और अन्त के ५८ वं पत्र से आगे के पत्र नहीं। संभव है यही वादिराज की रचना हो ।
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दिवाकरनन्दी सिद्धान्तदेव
यह भट्टारक चन्द्रकीति के प्रधान शिष्य थे । सिद्धान्तशास्त्र के अच्छे विद्वान् थे और वस्तु तत्त्व का प्रतिपादन करने में निपुण थे । इन्होंने तत्त्वार्थ सूत्र की कन्नड़ भाषा में ऐसी वृत्ति बनाई थी, जो मूर्खो, बालकों तथा विद्वानों के अवबोध कराने वाली थी। इनके एक गृहस्थ शिष्य पट्टणस्वामो नोकय्यसेट्टि थे इन्होंने एक तीर्थद् सदि (मन्दिर) का निर्माण कराया था और वीर सान्तर के ज्येष्ठ पुत्र तैलह देव ने, जो भुजबल -सान्तर नाम से ख्यात थे। राजा होकर उन्होंने पट्टणस्वामी की वसदि के लिये दान दिया था ।
दिवाकर नन्दी को सिद्धान्त रत्नाकर कहा जाता था। इनके शिष्य मुनिसकलचन्द्र थे । इस लेख में काल नहीं दिया । यह लेख हुम्मच में सूले वस्ती के सामने के मानस्तम्भ पर उत्कीर्ण है । इसका समय १०७७ ई० के लगभग बतलाया गया है' ।
हुम्मच के एक दूसरे १६७ नं० के लेख में, जिसमें पट्टण स्वामि नोकय्य सेट्टि के द्वारा निर्मित पट्टण स्वामि जिनालय को शक वर्ष ८४ (सन् १०६२) के शुभकृत संवत्सर में कार्तिक सुदि पंचमी आदित्यवार को सर्ववाधा रहित दान दिया । वीरसान्तर देव को सोने के सौ गद्याणभेंट करने पर मोलकेरे का दान मिला। माहुर में उसने प्रतिमा को रत्नों से मड़ दिया और उसके पास सोना, चांदी, मूगा आदि रत्नों की और पंच धातु की प्रतिमाएँ विराजमान की । पट्टण स्वामि नोकय्यसेट्टि ने शान्तगेरे, मोलकेरे, पट्टणस्वामिगेरे और कुक्कुड वल्लि के तले विण्डे गेरे ये सब तालाब बनवाये, और सौ गद्याण देकर उगुरे नदी का सौलंग के पागिमगल तालाब में प्रवेश कराया । यह लेख दिवाकर नन्दि के शिष्य सकलचंद पण्डित देव के गृहस्थ शिष्य मल्लिनाथ ने लिखा था ' ।
त्रैलोक्यमल्ल वीर सान्तर देव जैन धर्म का श्रद्धालु राजा था। क्योंकि इसने पोम्बुर्च में बहुत से जिनमन्दिर बनवाये थे । इसकी धर्म पत्नी चामल देवी ने नोकियब्बे वसदि के सामने 'मकरतोरण' बनवाया था । और
१. देखो (जैन लेख सं० भाग, २ पृ० २७७-२८१ ) २. जैन लेख सं० भा० २ पृ० २३७ - २४१ )