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१५वीं १६वीं १७वीं और १८वीं शताब्दी के प्राचार्य भट्टारक और कवि
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हुए थे I
पद्मनन्दि के प्रशिष्य और देवेन्द्र कीर्ति के शिष्य थे। और देवेन्द्रकोर्ति के बाद ये सूरत के पट्ट पर प्रासीन विद्यानन्दी के बाद उस पट्ट पर क्रमशः मल्लिभूषण और लक्ष्मीचन्द्र प्रतिष्ठित हुए थे। इनमें मल्लिभूषण गुरु श्रुतसागर को परम प्रादरणीय गुरु भाई मानते थे और इनकी प्रेरणा से श्रुतसागर ने कितने ही ग्रन्थों का निर्माण किया है। ये सब सूरत की गद्दी के भट्टारक हैं । इस गद्दी की परम्परा भ० पद्मनन्दी के बाद देवेन्द्र कीर्ति से प्रारम्भ हुई जान पड़ती है। ब्रह्मश्रुतसागर भट्टारक पद पर प्रतिष्ठित नहीं हुए थे, किन्तु वे जीवन पर्यन्त देश व्रती ही रहे जान पड़ते हैं ।
श्रुतसागर ने ग्रन्थों के पुष्पिका वाक्यों में अपने को 'कलिकाल सर्वज्ञ, व्याकरण कमलमार्तण्ड, तार्किक शिरोमणि, परमागम प्रवीण, नवनवति महावादि विजेता आदि विशेषणों के साथ, तर्क- व्याकरण- छन्द अलंकारसिद्धान्त और साहित्यादि शास्त्रों में निपुणमती बतलाया है जिससे उनकी प्रतिभा और विद्वत्ता का अनुमान लगाया जा सकता है ।
यशस्तिलक चन्द्रिका की पुष्पिका से ज्ञात होता है कि श्रुतसागर ने ६६ वादियों को विजित किया था । जहां ये विद्वान टीकाकार थे, वहाँ वे कट्टर दिगम्बर और असहिष्णु भी थे । यद्यपि अन्य विद्वानों ने भी दूसरे मतों का खण्डन एव विरोध किया है, पर उन्होंने कहीं अपशब्दों का प्रयोग नहीं किया । किन्तु श्रुतसागर ने उनका खण्डन करते हुए अप्रिय अपशब्दों का प्रयोग किया है, जो समुचित प्रतीत नहीं होते ।
मूलसंघ के विद्वानों, भट्टारकों में विक्रम की १३वीं शताब्दी से प्राचार में शिथिलता बढ़ने लगी थी, और श्रुतसागर के समय तक तो उसमें पर्याप्त वृद्धि हो चुकी थी। इसी कारण श्रुतसागर के टीका ग्रन्थों में मूल परम्परा के विरुद्ध कतिपय बातें शिथिलाचार की पोषक उपलब्ध होती हैं, जैसे तत्त्वार्थसूत्र के 'संयम श्रुत प्रतिसेवना' आदि सूत्र की तत्त्वार्थवृत्ति (श्रुतसागरी टीका ) में द्रव्य लिंगी मुनि को कम्बलादि ग्रहण करने का विधान किया है । मूल सूत्रकार का ऐसा अभिप्राय नहीं है ।
समय विचार
ब्रह्मश्रुतसागर ने अपनी कृतियों में उनका रचना काल नहीं दिया जिससे यह निश्चित करना शक्य नहीं है कि उन्होंने ग्रन्थों की रचना किस क्रम से की है। पर यह निश्चयतः कहा जा सकता है कि वे विक्रम की १६वी शताब्दा के विद्वान हैं । वे सोलहवीं शताब्दी के प्रथम चरण से लेकर तृतीय चरण के विद्वान रहे हैं । इनके गुरु भट्टारक विद्यानन्दी के वि० सं० १४६६ से १५२३ तक ऐसे मूर्तिलेख पाये जाते हैं जिनकी प्रतिष्ठा भ० विद्यानन्दी ने स्वयं की है अथवा जिनमें भ० विद्यानन्दी के उपदेश से प्रतिष्ठित होने का समुल्लेख पाया जाता है और मल्लिभूषण गुरु वि० सम्वत १५४४ तक या उसके कुछ समय बाद तक पट्ट पर आसीन रहे हैं ऐसा सूरत आदि के मतिलेखों से स्पष्ट जाना जाता है। इससे स्पष्ट है कि विद्यानन्दी के प्रिय शिष्य ब्रह्मश्रुतसागर का भी यही समय है । क्योंकि वह विद्यानन्दी के प्रधान शिष्य थे। दूसरा आधार उनका व्रत कथा कोष है, जिसे मैंने देहली पंचायती मन्दिर के शास्त्र भण्डार में देखा था, और उसकी आदि अन्त प्रशस्तियां भी नोट की थी। उनमें २०वीं 'पल्यविधान कथा' की प्रशस्ति में ईडर के राठौर राजाभानु प्रथवा रावभाणू जी का उल्लेख किया गया है और लिखा है। कि- 'भानुभूपति की भुजा रूपी तलवार के जल प्रवाह में शत्रु कुल का विस्तृत प्रभाव निमग्न हो जाता था, और उनका मंत्री हुबड कुलभूषण भोजराज था, उसकी पत्नी का नाम विनयदेवी था, जो प्रतीव पतिव्रता साध्वी और जिनदेव के चरण कमलो की उपासिका थी । उससे चार पुत्र उत्पन्न हुए थे, उनमें प्रथम पुत्र कर्मसिंह, जिसका शरीर भूरि रत्नगुणों से विभूषित था और दूसरा पुत्र कुलभूषण था, जो शत्रु कुल के लिए काल स्वरूप था, तीसरा
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१. देखी, गुजरातीमन्दिर सूरत के मूर्तिलेख, दानवीर माणिकचन्द्र पृ० ५३, ५४
२. मल्लि भूषण के द्वारा प्रतिष्ठित पद्मावती की सं० १५४४ को एक मूर्ति, जो सूरत के बढे मन्दिर जी में विराजमान है।