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________________ ५१० जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ पत्र पुण्य शाली थी घोपर, जो सघन पापरूपी गिरीन्द्र के लिए वन के समान था और चौथा गंगा जल के समान निर्मल मन वाला गङ्ग। इन चार पुत्रों के बाद इनकी एक बहिन भी उत्पन्न हुई थी, जिसका नाम पुतली था जो ऐसी जान पड़ती थी कि जिनवर के मुख से निकली हुई सरस्वती हो, अथवा दृढ़ सम्यक्त्व वाली रेवती हो, शील वती सीता हो और गुणरत्नराशि राजुल हो'। श्रुतसागर ने स्वयं भोजराज की इस पुत्री पुतली के साथ संघ सहित गजपन्थ और तुङ्गीगिरि आदि की यात्रा की थी। और वहां उसने नित्य पूजन की, तप किया पौर संघ को दान दिया था। जैसा कि उक्त प्रशस्ति के निम्न पद्यों से स्पष्ट है: "श्री भानुभूपति भुजासिजलप्रवाह निर्मग्नशत्रुकुलजातततप्रभावः । सद्बुद्धच हुंवृह कुले बृहतील दुर्गे श्री भोजराज इति मंत्रिवरो बभूव ॥४४ भार्यास्य सा विनयदेव्यभिधासुधोपसोद्गारवाक् कमलकान्तमुखी सखीव । लक्ष्म्याः प्रभोजिनवरस्य पदान्जभृगी साध्वी पतिव्रतगुणामणिवन्महाया ॥४५ सासूत भूरिगुणरत्नविभूषितांगं श्री कर्मसिंहमिति पुत्रमनूकरत्नं । कालं च शत्रुकुलकालमनूनपुण्यं श्री घोषरं घनतराधगिरीन्द्र वज्र ॥४६ गंगाजलप्रविलोच्यमनोनिकेतं तुयं च वर्यतरमंगजमत्र गंगं। जाता पुरस्तवन पत्तलिका स्वसैषां वक्त्रष सज्जिनवरस्य सरस्वतीव ॥४७ सम्यक्त्वदाढर्यकलिता किल रेवतीव सीतेव शीलसलिलोक्षित राजीमतीव सुभगा गुणरत्नराशिः वेला सरस्वति इवांचति पुतलीह ॥४८ यात्रां चकार गजपंथ गिरो ससंघा ह्य तत्तपो विदधती सदढ़वतासा। सच्छान्तिकं गणसमर्चनमहंदीश नित्यार्चन सकलसंघ सदत्त दानम् ॥४६ तुगीगिरौ च बलभद्रमुनेः पदान्जभृगी तथैव सुकृतं यतिभिश्चकार । श्री मल्लिभूषणगुरुप्रवरोपदेशाच्छास्त्रं व्यधाय यदिदं कृतिनां हृदिष्ट ॥५० -पल्य विधान कथा प्रशस्ति इन प्रशस्ति पद्यों में उल्लिखित भानुभूपति ईडर के राठौर वंशी राजा थे। यह राव के पूँजोजी प्रथम के पुत्र और रावनारायण दास जी के भाई थे, और उनके बाद राज्य पद पर आसीन हुए थे। इनके समय वि० सं० १५०२ में गुजरात के बादशाह मुहम्मद शाह द्वितीय ने ईडर पर चढ़ाई की थी, तब उन्होंने पहाड़ों में भागकर अपनी रक्षा की, बाद में उन्होंने सुलह कर ली थी। फारसी तबारीखों में इनका वीरराय नाम से उल्लेख किया गया है। इनके दो पुत्र थे सूरजमल्ल और भीसह । रावभाण जी ने स० १५०२ से १५२२ तक राज्य किया है । इनके बाद राव सूरजमल्ल जी स० १५५२ में राज्यासीन हुए थे । उक्त पल्ल विधान कथा की रचना रावभाण जी के राज्यकाल में हुई है। इससे भी श्रुतसागर का समय विक्रम को सोलहवीं शताब्दी का द्वितीय चरण निश्चित होत श्रुतसागर का स्वर्गवास कब और कहाँ हमा, उसका कोई निश्चित आधार अब तक नहीं मिला, इसी से उनके उत्तर समय की सीमा निर्धारित करना कठिन है, फिर भी सं० १५८२ से पूर्व तक उसकी सीमा जरूर है और जिसका आधार निम्न प्रकार है : थतसागर ने पं० पाशाधर जी के महाभिषेक पाठ पर एक टीका लिखी है जिसकी स० १५७० की लिखी हई टीका की प्रति भ० सोनागिर के भंडार में मौजूद है । इससे यह टीका सं० १५७० से पूर्व बनी है यह टोका अभिषक पाठ संग्रह में प्रकाशित हो चुकी है। उसकी लिपि प्रशस्ति सं० १५८२ की है जिससे भ० लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य ब्रह्मज्ञानसागर के पठनार्थ आर्या विमलश्री की चेली और भ० लक्ष्मीचन्द्र द्वारा दीक्षित विनयश्री ने स्वयं लिखकर १. देखो, भारत के प्राचीन राजवंश भा० ३ पृ० ४२६ । २. सं० १५८५ की लिखी हुई श्रुतसागर की षट् पाहुड टीका की एक प्रति आमेर के शास्त्र भंडार में उपलब्ध है। उसकी लिपिप्रशस्ति मेरी नोटबुक में उद्धृत है।.
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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