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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
करुगाल्लक्कुडी ओर उत्तम पाल्यम को चट्टानों पर जैन मूर्तियों का निर्माण करवाया। दक्षिण को प्रोर तिलेवेल्लो जिल के इरुवाड़ी (Eruvadi) स्थान में मूर्तियों का निर्माण कराया।
त्रावणकोर राज्य के चितराल नामक स्थान के समीप तिरुच्चाणटु (Tiruchchanattu) नामकी पहाड़ी पर भी चट्टान काट कर जैन मूर्तियाँ उत्कीर्ण की गई है।
आर्यनन्दिका यह कार्य महत्वपूर्ण, तथा जैनधर्म को प्रसिद्ध के लिए था। इनका समय ८-९वीं शताब्दी है ।
गुणकीति मुनीश्वर मुनि गुणकीति मेलाप तीर्थ कारेयगण के विद्वान मूल भट्टारक के शिष्य थे। और जो अत्यन्त गुणी थे।
श्रीमन्मैलापतीर्थस्य गणे कारेय नामनि । बभूवोग्रतपोयुक्तः मूलभट्टारको गणी।। तच्छिष्यो गुणवान्सूरि गुणकीति मुनीश्वरः । तस्याप्यासी (सींद्रि) द्रकोतिस्वामी काममदापहः॥
-जैन लेख सं० भा०२ पृ० १५२ सौदत्ती का यह शिलालेख शक सं० ७६७ सन् ८७५ ईसवी का है । अतः गुणकीति का समय ईसा की नवमी शताब्दी है । इनके शिष्य इन्द्रकीति थे ।
इन्द्रकोति इन्द्रकीति मेलाप तीर्थ कारेयगण के विद्वान गुणकीर्ति के शिष्य थे, जो काम के मद को दूर करने वाले थे। पाडली और हन्निकरि के शिलालेखों से स्पष्ट होता है कि कारेयगण यापनीयसंघ एक गण था। और सौटती नवमी शताब्दी में यापनीय संघ का एक प्रमुख केन्द्र था।
महासामन्त पृथ्वीराय राष्ट्रकट नरेश कृष्ण तृतीय का महा सामन्त था। और इन्द्रकीति का शिष्य था। उसने एक जिनालय का निर्माण कराकर उसे भूमि प्रदान की थी। इन इन्द्रकीति के पूर्वज भी कारेय गण के थे।
सौदत्ती का यह लेख शक सं०७६७ सन् ८७५ ईस्वी का है, जो वहां के एक छोटे मन्दिर की बायीं मोर दीवाल में जड़े हुए पाषाण पर से लिया गया है। इससे इनका समय ईसा की नवमी शताब्दी है । इनके गुरु गुणकीर्ति का समय भी ईसा की नवमी सदी है।
अपराजितसूरि (श्री विजय) अपराजित सरि-यह यापनीय संघ के विद्वान थे। चन्द्रनन्दि महाकर्म प्रकृत्याचार्य के प्रशिष्य और बलदेव मरि के शिप्य थे। यह पारातीय प्राचार्यों के चूड़ामणि थे। जिन शासन का उद्धार करने में धीर वीर तथा यशस्वी
इन्हें नागनन्दि गणि के चरणों की सेवा से ज्ञान प्राप्त हया था। और श्रीनन्दी गणी को प्रेरणा से इन्होंने शिवार्य की भगवती आराधना की 'विजयोदया' नाम की टीका लिखी थी। इनका अपर नाम श्री विजय या विजयाचार्य था। पंडित पाशाधर जी ने इनका 'श्री विजय' नाम से ही उल्लेख किया है । भगवती आराधना को ११६७ नवर की गाथा की टीका में 'दशवकालिक पर 'विजयोदया टीका लिखने का उल्लेख किया है-"दशवकालिक टीकायां 'श्री विजयोदयायाँ प्रपंचिता उद्रगमादि दोषा, इति नेह प्रतन्यते ।" आराधना की टीका का नाम भी 'श्री विजयोदया' दिया है। टीका में अचेलकत्व का समर्थन किया गया है। और श्वेताम्बरीय उत्तराध्ययनादि ग्रन्थों के
१. जैन लेख सं० भा० २ लेख न० १३० पृ० १५२ २. एतच्च श्री विजयाचार्य विरचित संस्कृत मूलाराधना टीकायां सुस्थित सूत्र विस्तरतः समर्थितं । अनगार धर्मामृत
टीका पृ. ६७३)।