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नवी और दसवी शताब्दी के आचार्य
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क प्रमाण भी दिये है । यह यापनीय संघ के आचार्य थे। इस सघ के सभी प्राचार्य नग्न रहते थे, किन्तु श्वेताम्बरीय आगम ग्रन्थों को मानते थे ओर सवस्त्र मुक्ति और केवल भुक्ति को मानते थे । इस संघ के शाकटायन व्याकरण के कर्त्ता पाल्यकीर्ति ने स्त्री मुक्ति और केवल भुक्ति नाम के दा प्रकरण लिखे है, जो मुद्रित हो चुके है।
टीका में एक स्थान पर भूत और भविष्यत् काल के सभी जिन अचेलक है। मेरु आदि पर्वतों की प्रतिए और तीर्थकर मार्गानुयायी गणधर तथा उनके शिष्य भी उसी तरह अचलक है । इस तरह अचेलता सिद्ध हुई । जिनका शरीर वस्त्र से परिवेष्टित है वे व्युत्मृष्ट, प्रलम्ब भुज और निश्चल जिनके सदृश नही हो सकते । १ दशववैकालिक पर टीका लिखने के कारण 'आरातीय चूडामणि' कहलाते थे ।
समय
ऊपर जो गुरु परम्परा दी है वे सब प्राचार्य यापनीय सघ के जान पडते है । अपराजित सूरि ने लिखा है कि- "चन्द्रनन्दि महाकर्म प्रकृत्याचार्य शिष्येण प्रातीयसूरि चलामणिना नागनन्दगणि-पाद-पद्मोपसेवाजातमतिबलेन बलदेव सृरिशिष्येण जिनशामनोद्धरणधीरेण लब्धयशःप्रमरेणापराजितसूरिणा श्रीनन्दिगणिनावचोदितेन रचिता । "
जो उपलब्ध हुआ है वह श्री पुरुष का दानपत्र है, जो रूप से विमलचन्द्र, कीर्तिनन्दी, कुमारनन्दी और चन्द्र88 ) | बहुत सम्भव है कि टीकाकार ने इन्ही चन्द्रनदि
चन्द्रनन्दी का सबसे पुराना उल्लेख अभी तक 'गोवर्पय' को ई० सन् ७७६ मे दिया गया था । इसमें गुरु नन्दी नाम के चार आचार्यो का उल्लेख हे (S J. pt III, अपने को प्रशिष्य लिखा हो । यदि ऐसा है तो टीका बनने का समय वि० स० ५३३ अर्थात् विक्रम की हवी शताब्दी तक पहुच जाता है | चन्द्रनन्दी का नाम 'कर्मप्रकृति' भी दिया है और 'कर्म और कर्म प्रकृति का वेलूर के १७ वं शिलालेख में अकलक देव श्रोर चन्द्रकीति के बाद होना बतलाया है । ओर उनके बाद विमलचन्द्र
उल्लेख किया है । इसने भी उक्त समय का समर्थन होता है । वलदेव सृरि का प्राचीन उल्लेख श्रवण बेल्गोल के दो शिलालेखो में न० ७ और १५ में पाया जाता है। जिनका समय क्रमशः ६२२ और ५७२ शक संवत् के लगइससे भी उक्त भग अनुमान किया गया है। बहुत सम्भव है कि यही बलदेव सृरि टीकाकार के गुरु रहे हो । समय की पुष्टि होती है । इनके अतिरिक्त टीकाकार ने नागनन्दी को अपना गुरु बतलाया है । वे नागनन्दी वही जान पडते है, जो असग के गुरु थे । अत अपराजित सूरि का समय विक्रम की नवमी का उपान्त्य हो सकता है ।
टीका
आराधना की यह टीका अनेक विशेषताओं को लिये हुए हे। न० ११६ की टीका करते हुए 'उसकी व्याख्या में सयमहीन तप कार्यकारी नहा । इसकी पुष्टि करते हुए मुनि श्रावक के मूल गुणों तथा उत्तर गुणां और आवश्यकादि कर्मों के अनुष्ठान विधानादि का विस्तार के साथ वर्णन दिया है। उसका एक लघु अश इस प्रकार है
' तद् द्विविध मूलगुणप्रत्यान्यान उत्तरगुणप्रत्याख्यान । नत्र सयताना जीवितार्वाधिक मूलगुणप्रत्याख्यान । सयतासयताना अणुव्रतानि मूलगुण व्यपदेशभॉजि भवन्ति । नेपा द्विविध प्रत्याख्यान अल्पकालिक, जीवितावधिक चेति । पक्ष-मास - पण्मासादि रूपेण भविष्यत्काल सार्वाधिक कृत्वा तत्र स्थल हिमानृतन्तेयाब्रह्मपरिग्रहान्न चरिष्यामि । इति प्रत्याख्यानमल्प वालकम् । आमरणमर्वाध कृत्वा न करिष्यामि । स्थूल हिमादीनि इति प्रत्याख्यान
१. 'तीकराचरित च गुग्गा - महनन वन समग्रा मुक्तिमार्ग प्रकाशापन पराजिता सर्वे एवाचे नाभूनाभविष्यतश्च । यथा मेर्वादि पर्वत गता प्रतिमारतीर्थकर मार्गानुयायिनश्च गणधरा इति ते यचेनातिच्छिष्याश्च तथैवेति सिद्धमचेल त्वम । चेल परि भ० आ० टी० प० ६११ वेष्टितागोन जिनमशः व्युत्मृष्ट प्रलम्बभुजो निश्चलो जिन प्रतिरूपता धत्तं ।।"
२. देखो, अनकान्त वर्ष २ कि० ८ पृ० ४३७ ।