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________________ २५८ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ समय-अमितगति ने अपना पंचसंग्रह वि० सं० १०७३ में बनाकर समाप्त किया है, अतः डड्ढा की रचना उससे पूर्ववर्ती है । डड्ढा ने अमृतचन्द्र के तत्त्वार्थसार का उद्धरण दिया है । आचार्य अमृतचन्द्र का समय विक्रम की दशवीं शताब्दी है । अतः डढ्ढा अमृतचन्द्र के बाद के विद्वान् हैं। चूकि डड्ढा के पंचसंग्रह का एक पद्यर जयसेन के धर्मरत्नाकर में उध्दृत पाया जाता है। धर्मरत्नाकर का रचना काल सं० १०५५ हैं। अत: डड्ढा का पंचसंग्रह १०५५ से पहले बना है। इससे वह विक्रम की ११ वीं शताब्दी के पूर्वार्ध की रचना है। ब्रह्मदेव की द्रव्य संग्रह की गाथा ४२ की टीका प० १७७ में डड्ढा के पंचसंग्रह के २२६ और २३० नम्बर के पद्य पाये जाते हैं। इससे पंचसंग्रह में द्रव्य संग्रह की टीका से पहले बन चुका था। पंडित प्रवचनसेन पंडित प्रवचनसेन-इनका उल्लेख लाडबागडगण और बलात्कारगण के विद्वान् श्रीनन्द्याचार्य सत्कवि के शिप्य थे श्रीचन्द्र मुनि ने पंडित प्रवचनसेन से पद्मचरित सुनकर उसका टिप्पण धारा नगरी में सं० १०८७ में बनाया था। इससे स्पष्ट है कि पंडित प्रवचनसेन उस समय धारा में ही निवास करते थे। इनका समय विक्रम की ११वीं शताब्दी है । इन्होंने किन ग्रन्थों की रचना की यह कुछ ज्ञात नहीं हो सका। शान्तिनाथ शान्तिनाथ-इसके पिता गोविन्दराज, भाईकन्नपार्य और गुरु वर्धमान व्रती थे। जिनमताम्भोजिनी राजहंस, सरस्वती मुख मुकर, सहज कवि, चतुर कवि, निस्सहाय कवि प्रादि इनके विरुद हैं। शक सं०६९० के गिरिपुर के १३६ व शिलालेख से ज्ञात होता है कि यह भुवनैकमल्ल (१०६८-१०७६ तक) पराजित लक्ष्म नपति का मंत्री था। इसके उपदेश से लक्ष्य नृपति ने बलिग्राम में शान्तिनाथ भगवान का मन्दिर बनवाया था। इस लेख में कवि के 'सुकुमार चरित' ग्रन्थ का उल्लेख मिलता है । कवि का समय भी सन् १०६८ से १०७६ तक सुनिश्चित है। इन्द्रकीति इन्द्रकीति-कौण्डकन्दान्वय देशी गण के प्राचार्य थे। इनकी अनेक उपाधियाँ थीं। को गलिवंजिवेल्लारी के शक सं०९७७ सन् १०५५ (वि० सं० १११२) के लेख में, जो चालुक्य सम्राट त्रैलोक्य मल्ल के राज्य काल का है। इस मन्दिर का निर्माण गंगवंश के राजा दुविनीत ने किया था। लेख के समय प्राचार्य इन्द्रकीति ने मन्दिर को कुछ दान दिया था। (-इण्डियन एण्टीक्वेरी ५५ सन् १९२६ पृ०७४) गुणसेन पंडितदेव प्रस्तुत गुणसेन पंडित द्रविल गण के नन्दिसंघ तथा महामरुङ्गलाम्नाय के गुरु पुष्पसेन व्रतीन्द्र के शिष्य थे। पागम रूपी अमृत के गहरे समुद्र थे । व्याकरण आगम और तर्क में निपुण थे। यह मुल्लूर के निवासी थे। और पोयसल के गुरु थे। पोय्सलाचारि के पुत्र माणिक-पोय्सलाचारि ने यह वसदि बनवाई। और शक वर्ष ९८४ शुभकृत संवत्सर में फाल्गुन शुद्ध पंचमी बधवार रोहिणी नक्षत्र में भगवान की प्रतिष्ठा की। तथा तिरुनन्दीवर के काल में दान देकर गुणसेन पंडितदेव को सौंप दिया। लेख चूकि शक सं० ९८४ सन् १०६२ ई० का है। इन्होंने सन् १०५० के लगभग धर्म के तौर पर 'नागकूप' नाम का एक कुवा मुल्लूर ग्राम के वास्ते खुदवाया था (एपि.ग्रा. इंडिका कूर्ग इनकृप्सन्स नं. ४२) (लेख नं० २०२ पृष्ठ २८४) शक सं०६८० (१०५८ ई०) में मुल्लर का यह शिलालेख लिखा गया। इसमें लिखा है कि राजेन्द्र गाल्व ने उस वस्ति के लिये दान दिया जो उसके पिता ने बनवाई थी। राजाधिराज की माता पोच्चरसि ने गुणसेन को दान दिया। (कुर्गइन्स्कृप्सन्स १९१४ नं० ३५) शक सं० ६८६ (१०६४ ई०) में मुल्लूर का यह शिला लेख उत्कीर्ण हुमा, जिसमें गुणसेन की मृत्यु का
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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