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________________ ४१४ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ विशालकीर्ति पण्डितदेव की वैयावृत्य से शब्दार्णवर्चा,द्रका की रचना की थी। उस समय वहां शिलाहारवंशीय वीर भोजदेव का राज्य था। राजशेखर सूरि के 'चतुविशति-प्रबन्ध' में वर्णित विजयपूर नरेश कूतिभोज और सोमदेव द्वारा वणित वीर भोजदेव दोनों एक ही हैं। अतः वादीन्द्र विशालकीति का समय सं० १२६० मे १३०० के मध्य तक जानना चाहिए। इस उपनेख से विशालकोति का कोल्हापूर के पास-पास जाना निश्चित है मुनि पूर्णभद्र यह मुनि गुणभद्र के शिष्य थे । इन्होंने अपनी कृति 'सुकमालचरिउ को अन्तिम प्रशस्ति में अपनी गुरु परम्परा का तो उल्लेख किया है किन्तु संघगण-गच्छादिक का काई उल्लेख नही किया। गुजरात देश के सुप्रसिद्ध नागर मडल के निवासी वीरमूरि के विनयशील शिप्य मुनिभद्र थे। उनके शिप्य कुसुमभद्र हुए, ओर कुसुमभद्र के शिप्य गणभद्र मूनि थे, पार गुण गद्र के शिष्य पूर्णभद्र थे । ग्रन्थ में कवि ने रचना काल का कोई उल्लेख नहीं किया। ऐसी स्थिति में समय का निश्चित करना कठिन है। आमेर शास्त्र भंडार की यह प्रति सं०१६३२ की प्रतिलिपि को हुई है। इसमे मात्र इतना फलित होता है किसकमाल चरित की रचना मं० १६३२ से पूर्व हुई है। 'णमिणाह चरिउ' के कर्ता कवि दामोदर ने अपने गुरु का नाम महामुनि कमलभद्र लिखा है। जो गुणभद्र के शिष्य थे। और मुरमेन मुनि के शिष्य थे । यदि दामोदर कवि द्वारा उल्लिखित गुणभद्र और मूनि पूर्णभद्र के कणभट की एकता मिद्ध हा जाय तो इन पूर्णभद्र का ममय विक्रम को १३ वा शताब्दी का मध्यकाल हा सकता है: क्योंकि दामोदर ने नेमिनाथ चरित की रचना का समय सं० १२८७ दिया है, दामोदर गुजरात से सलखणपूर आये थे। ओर मुनिपूर्णभद्र भी गुजरात देश के निवासी थे। प्रस्तुत ग्रन्थ का नाम 'सुकमाल चरिउ' है । जिसमें छह सधियां हैं, जिनमें अवन्ति नगरी के सुकमालश्रेष्ठी का जीवन परिचय अकित है जिमसे मालम होता है कि उनका शरीर अत्यन्त सुकोमल था। पर वे उपसर्ग और परीषदों के सहने में उतने ही कठोर थे। उनके उपसर्ग की पीड़ा का ध्यान पाते ही शरीर के रोंगटे खडे हो जाते हैं। परन्तु उम साधु की निस्प्टहता और सहिष्णुता पर पाश्चर्य हा बिना नहीं रहता, जब गीदड़ी और उसके बच्चों द्वारा उनके शरीर के खाए जाने पर भी उन्होंने पीड़ा का अनुभव नहीं किया, प्रत्युत सम परिणामों द्वारा नश्वर काया का परित्याग किया। ऐसे परीपहजयी साधु के चरणो में मस्तक अनायास झुक जाता है। __गुणवर्म (द्वितीय) कवि का निवास कुंडि नामक स्थान में था। इसके गुरु वही मुनिचन्द्र जान पड़ते हैं जो कार्तिवीर्य नरेश के गरु थ । कातिवीर्य 'अहितक्ष्मभद्वज्र' सेनापति शान्तिवर्म कवि का पोपक था। गणाब्जवन कलहस, वितिलक, और काव्यसत्कलाणव मृगलक्ष्मी आदि विरुद थे । कवि की दो रचनाएं उपलब्ध हैं, पुष्पदन्त पुराण पार चन्द्र नाथ पुप्पदन्त पुराण मे हवं तीर्थकर का चरित्र चित्रण किया गया है। उसमें अपने से पूर्ववर्ती कवियों का स्मरण करते हए कवि न जन्न कवि (सन् १२३० ई०) का गुणगान किया है। इससे स्पष्ट है कि कवि जन्य के बाद हमा है। पार सन् १२४५ ई० के मल्लिकार्जुन ने अपने 'सूक्तिसुधार्णव' में पुष्पदन्त पुराण के पद्य उद्धत किए है। इससे यह कवि मल्लिकार्जुन से पहले हुआ है। अतएव इसका समय सन् १२३५ ई० जान पड़ता है। कवि की रचना सूकर और प्रसाद गुणयुक्त है। कमलमव मूलसंघ कुन्दकुन्दान्वय देशीगण और पुस्तक गच्छ के प्राचार्य माधनन्दि का शिष्य था। इसके दो विरुद थे, कवि कंजगर्भ, और सूक्तिसन्दर्भ गर्भ । कवि को एक मात्रकृति शान्तीश्वर पुराण है। इसने अपने से पूर्ववर्ती कवियों में
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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