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तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य और कवि
लुईसराइस के अनुसार इस लेख का समय ११५४ ई० है। यही समय सन ११५४ (वि० सं० १२११ नरेन्द्रकीति त्रैविद्य और उनके सधर्मा मुनिचन्द का है ।
वासवसेन मनि वासवसेन ने अपना कोई परिचय नहीं दिया। और न ग्रन्थ में रचना काल ही दिया। इनको एक मात्र कृति यशोधर चरित है। उसमे इतना मात्र उल्लेख किया है कि बागडान्वय में जन्म लेन वाले वासवमेन की यह कृति है-'कृति वासवसेनस्य वागडान्वय जन्मनः ।' ग्रय ८ सर्गात्मक एक खण्ड काव्य है । जिस में राजा यशोधर और चन्द्रमती का जीवन अंकित किया गया है । यशोधर का कथानक दयापूर्ण और सरस रहा है । इसी से यशोधर के संबंध में दिगम्बर-श्वेताम्बर विद्वानों और प्राचार्यों ने प्राकृत सस्कृत भापामें अनेक ग्रथ लिखे है। वास्तव में ये काव्य दयाधर्म के विस्तारक है। इनमें सबसे पुराना काव्य प्रभजन का यशाधर चरित है। इस चरित का उल्लेख कुवलयमाला के कर्ता उद्योतनमूरि (वि० स० ८३५ के लगभग) ने किया है ' । कविवासवर्गन ने लिखा है कि पहले प्रभंजन और हारपण आदि कविया न जा कुछ कहा है वह मुझ वालक स कम कहा जा सकता है
प्रेमी जी ने लिखा है कि विक्रम स० १३६५ म गंधर्व ने पुष्पदन्त के यशाधरचारत में कौल का प्रसंग, विवाह और भवांतर कथन चरित म शामिल किया है उसका उन्हान यथायस्थान उल्लेख भी कर दिया है। कांव गधर्व ने पहली संधि के २७ व कडवक की ७६वी पक्ति म लिखा है कि-'जं वासवसेणि पुव्वरइउ, तं पेक्खवि गंधव्वेण कहिउ'। इससे स्पष्ट है कि वासवगेन का यशोधर चरित पहल रचा गया था, उम दबकर हा गधव कोव ने लिखा है। इस उल्लेख से इतना स्पष्ट हो जाता है कि वासवसेन वि० सं० १३६५ में पूर्व वर्ती विद्वान है, उससे बाद के नही। संभवतः वे विक्रम की १३वी शताब्दी के विद्वान हों।
वादीन्द्र विशालकीति बड़े भारी वादी थे। इन्हें पण्डित पाशाधर जी ने न्यायशास्त्र पढ़ाया था। वे तर्कगास्त्र में निपुण थे, और धारा या उज्जैन के निवासी थे । यह धारा या उज्जैन की गद्दी दे. भट्टारक थे इनके शिष्य मदनकोति थे। अपने गफ के मना करने पर भी मदनकीति दक्षिण देश की ओर कर्नाटक चले गए थे। वहां पर विद्वप्रिय विजयपुर नरेश कन्तिभोज उनके पाण्डित्य पर मोहित हो गए। फिर वे वहां से वापिस नही लोटे । विशालकीति ने उन्हें अनेक पत्रों द्वारा प्रबुद्ध किया किन्तु वे टम से मस नही हुए। तब विशालकीति जी स्वयं दक्षिण की ओर गए। वे कोल्हापुर गये हों, और सम्भवतः उन्होंने मदनकीति को साक्षात्प्रेरणा की हो, ओर उससे सम्प्रबुद्ध हुए हों। सोमदेव मुनि कृत हाब्दार्णवचन्द्रिका की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि कोल्हापुर प्रान्तान्तर्गत अर्जुरिका नाम के गांव में शक सं०११२७ (वि.सं. १२६२) में श्री नेमिनाथ भगवान के चरण कमलों की आराधना के बल से और वादीभवनांकश
१. सत्तूरण जो जमहरो जसहर चशिएग जगवाए पयडी।
कलिमलपभंजणांच्चिय पभंजणो आसि गरिसी ।कुवलयमाला २. प्रभंजनादिभिपूर्व हरिषेणसमन्वितैः ।
यदुक्तं तत्कथं शक्यं मया बालेन भापितुम् ।। यशोधरचरित ३. स्वस्ति श्रीकोल्लापुर देशान्तर्वार्जुरिकामहारथानयुधिष्ठिगवतार महामण्डलेश्वर गंडगदित्यदेव निर्मापित निभुवनतिलक जिनालये श्रीमत्तरमपरमेष्ठि श्री नेमिनाथ श्रीपादपपाराधनबलेन वादीभवज्राकुश श्रीविशालकीर्ति पंण्डित देव वयावृत्यतः श्री मच्छिलाहारकुलकमलमार्तण्डतेज; पुजराजाधिराजपरमेश्वरपरमभट्टारक पश्चिमचक्रवति श्रीवीरभोजदेव विजयराज्ये सकवर्षकसहस्रं कशतसप्तविंशति ११२७ तम क्रोधन सम्वत्सरे स्वस्तिसमस्तानवद्य विद्याचक्रवर्ति श्री पूज्यपादानुरक्तचेतसा श्रीमत्सोमदेवमुनीश्वरेण विरचितेयं शब्दार्णवचन्द्रिका नाम वृत्तिरिति ।
-जैन ग्रन्थ प्रशस्ति सं० भा० १ पृ० १६६