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पांचवीं शताब्दी से आठवीं शताब्दी तक के आचार्य
१५३ जिस तरह पट के ताना और बाना दोनों ही अलग-अलग निरपेक्ष रह कर शीत निवारण नहीं कर सकते । किन्तु जब ताना बाना सापेक्ष होकर पट का रूप धारण कर लेते हैं, तब वे दात के निवारण में समर्थ हो जाते है उसी तरह नियतवादों का आग्रह रखने वा परसार निरपेक्ष नय सम्यक्तत्व को नहीं पा सकते। किन्त
गयां यदि एक सूत्र में न पिरोई गई हों, पीर न परस्पर घटक हों, तो वे रत्नावली नहीं कहला सकतीं। जिस तरह एक सूत्र में पिरोई गई मणियां रत्नावली हार बन जाती हैं। उसी तरह सभी नय सापेक्ष होकर सम्यकपने को प्राप्त हो जाते हैं।
निक्षेप मीमांसा–में निक्षेप का स्वरूप और उसके भेदों का विचार किया गया है। निक्षेप के चार भेद हैं, नाम स्थापना, द्रव्य और भाव । उनका प्रयोजन अप्रकृत का निराकरण, प्रकृत का निरूपण, सशय का विनाश
और तत्त्वार्थ के निश्चय करने में निक्षेप की सार्थकता है।' अनन्त धर्मात्मक वस्तु को व्यवहार में लाने के लिये निक्षेप का प्रयोजन अावश्यक है। गूण रहित वस्तु में व्यवहार के लिए अपनी इच्छा से की गई संज्ञा नाम है। काट कर्म, पूस्तकर्म, चित्र कर्म और अक्षनिक्षप में यह वही है इस प्रकार स्थापित करने को स्थापना कहते हैं। जो गणों द्वारा प्राप्त किया जायेगा या प्राप्त होगा वह द्रव्य है जैसे राजपुत्र को राजा कहना । भविष्यत् पर्याय की योग्यता या अतीत-पर्याय के निमित्त से होने वाले व्यवहार का प्राधार द्रव्य निक्षेप हे। जैगे जिसका गज्य चला गया, उसे वर्तमान में राजा कहना अथवा युवराज को अभी राजा कहना। वर्तमान पर्याय विशिष्ट द्रव्य में तत्पर्याय मलक का व्यवहार का प्राधार भाव निक्षेप है।
इस सब संक्षिप्त कथन से ग्रन्थ की महत्ता का आभास मिल जाता है । इस तरह अकलंक देव की कृतियां जैन शासन की महत्वपूर्ण और मूल्यवान कृतियां हैं।
प्रमाण संग्रह-इस ग्रन्थ का जैसा नाम है तदनुसार उसमें प्रमाणों, युक्तियों का संग्रह है। इस ग्रन्थ की भाषा और विषय दोनों ही जटिल और दुरूह हैं। यह लघीस्त्रय और न्यायविनिश्चय से कठिन है। ग्रन्थ प्रमेय बहल है। लगता है इसकी रचना न्याय विनिश्चय के बाद की गई है, क्योंकि इसके कई प्रस्तावों के अन्त में न्याय विनिश्चय की अनेक कारिकाएं विना किसी उपक्रम वाक्य के पाई जाती हैं । इस ग्रन्थ की नोमि कारिका में प्रयक्त'प्रकलंक महीयसाम्' वाक्य तो अकलंक देव का सूचक है ही, किन्तु इसकी प्रौढ़ शैली भी इसे अकलंक देव की अन्तिम कृति बतलाती है, कारण कि इसकी विचारधारा गहन हो गई है । जान पड़ता है इसमें उन्होंने अपने अव. शिप्ट विचारों को रखने का प्रयास किया है। इसमें हेतुओं को उपलब्धि अनुपलब्धि ग्रादि अनेक भेदों का विस्तत विवेचन किया गया है। जान पड़ता हे इस पर प्राचार्य अनन्तवीयं कृत प्रमाण संग्रहालंकार नाम को कोई का रही है जिसका उल्लेख अनन्तवीर्य ने स्वयं किया है।
प्रमाण संग्रह में प्रस्ताव और साढ़े सतासी ८७३ कारिकाएं हैं। इस पर अकलंक देव ने कारिकामा अतिरिक्त पूरक वृत्ति भी लिखी है। इस तरह गद्य-पद्यमय इस ग्रंथ का प्रमाण लगभग अप्टशतो के बराबर हो हो जाता है। प्रथम प्रस्ताव में ६ कारिकायें हैं। जिनमें प्रत्यक्ष का लक्षण श्रुत का प्रत्यक्ष अनुमान चोर आगमपूर्वक, प्रौर प्रमाण का फल आदि का निरूपण है। दूसरे प्रस्ताव में भी कारिकाय हैं, जिनमें परीक्ष के भेट स्मति, प्रत्यभिज्ञान और तर्क आदि का निरूपण है।
तीसरे प्रस्ताव में १० कारिकानों द्वारा अनुमान के अवयव, साध्य साधन साध्याभास का लक्षण, सदसदेकान्त में साध्य प्रयोग की असम्भवता, सामान्य विशेषात्मक वस्तु को साध्यता और उसमें दिये जाने वाले संशयानि पाठ दोषों के निराकरण प्रादि का कथन है।
१. अवगयरिणवारणठं पयदस्य परूवणा रिण मित्त च । संशयविणासण? तच्चत्थवधारणट्ट च ।।
-धवला० पु०१पृ० ३१ । २. सिद्धि विनिश्चय टीका पृ०८, १०, १३० आदि