SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 63
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवान महावीर के ग्यारह गणधर २६ पिता का नाम बल और माता का नाम अतिभद्रा था। इनको मोक्ष के सम्बन्ध में शंका थो । भगवान महावीर द्वारा उसका समाधान हो जाने पर उन्हीं के समक्ष उन्होंने दिगम्बर मुद्रा धारण की। आठ वर्ष तक कठोर तपश्चरण द्वारा आत्म-शोधन किया और घाति चतुष्टय का विनाश कर केवलज्ञान प्राप्त किया। कुछ वर्ष केवलो पर्याय में रहकर अविनाशी पद प्राप्त किया। यम मुनि उड़ देश में धर्मपुर नाम का एक नगर था। वहाँ के राजा का नाम 'यम' था। राजा बड़ा गन् और शास्त्रज्ञ था। उसकी धनवती रानी से गदभ नाम का एक पुत्र ओर कोणिका नाम को पुत्रो उत्पन्न हु अतिरिक्त और भी रानियाँ थी। जिनमे पाँच सौ पुत्र उत्पन्न हए थे। वे पाँच सो भाई परस्पर में प्रेमी और धर्मात्मा थे । संसार से उदासीन रहा करते थे। राजा का दीर्घ नाम का एक मंत्री था जो लोक शास्त्र और राजनीति का पंडित था। एक दिन किसी नैमित्तिक ने राजा से कहा कि कुमारी कोणिका का जो पति होगा वह सारी पृथ्वी का भोक्ता होगा। यह सुनकर राजा अत्यन्त प्रसन्न हुआ। वह पुत्री की बड़े यत्न से रक्षा करने लगा। उसने उसके लिए एक सुन्दर तलघर बनवा दिया, जिससे उसे छोटे-मोटे बलवान राजा न देख सकें। एक समय सुधर्माचार्य विहार करते हुए पांच सौ मुनियों के संघ सहित धर्मपुर में पधारे, और नगर के बाहर उपवन में ठहरे। उनका एकमात्र लक्ष्य ससार के जीवों का हित करना था। नगर निवासियों को उनकी पूजा, वन्दना के लिये पूजन सामग्री को लेकर जाते हुए देखकर राजा भी अपने पाण्डित्य के अभिमान में मुनियों की निन्दा करते हए उनके पास गया। मुनि निन्दा और ज्ञान का अभिमान करने से उसी समय उसके ऐसे तीव्र पाप कर्म का उदय पाया कि उसकी बुद्धि नष्ट हो गई, और वह महामूर्ख बन गया। नीति में भी कहा है कि कूल, जाति, बल, ऋद्धि, ऐश्वर्य, शरीर, तप, पूजा प्रतिष्ठा और ज्ञानादि का मद नही करना चाहिये, क्योंकि इनका अभिमान बड़ा दुःखदायी होता है। __राजा को अपनी यह दशा देखकर बड़ा आश्चर्य और खेद हुआ। उसने अपने कृत कर्मों का बड़ा पश्चात्ताप किया। मुनिराज को भक्ति पूर्वक नमस्कार किया, और उनकी तीन प्रदक्षिणाएं दीं। और उसने उनका भक्तिपर्वक उपदेश सूना । उसस उसे कुछ शान्ति मिली। उसका प्रभाव राजा पर पड़ा, परिणामस्वरूप राजा का चित्त देह-भोगों से विरक्त हो गया। वे उसी समय गर्दभ नाम के पुत्र को राज्य देकर अपने अन्य पाँच सौ पत्रों के साथ, जो बाल अवस्था से वैरागी थे, मुनि हो गए। मूनि अवस्था में सबने शास्त्रों का खूब अभ्यास किया। पाश्चर्य है कि पाँच सौ पत्र तो खब विद्वान बन गए। किन्तु यम मूनि को पंच नमस्कार मत्र का उच्चारण करना तक नहीं पाया। अपनी यह दशा देखकर वे बड़े शर्मिन्दा और दुखी हुए। उन्होंने वहाँ रहना उचित न समझ अपने गुरु से तीर्थ यात्रा करने की प्राज्ञा ले ली, और अकेले ही वहाँ से निकल पड़े। एक दिन यात्रा में यम मुनि अकेले ही स्वच्छन्द हो मार्ग में जा रहे थे। उन्होंने गमन करते हुए एक रथ १. एतस्मिन् सकले नष्टे गर्वहीनो नराधिपः । मुनिपार्श्व स सम्प्राप्य भक्तिहृष्टतनूरुहः ॥१४॥ पाहय गर्दभाभिख्यं पुत्र प्राप्तं स भूपतिः । राज्यपट्ट बबन्धास्य समस्तनपसाक्षिकम् ॥१५॥ शतः पंचभिरायुक्तः स्वपुत्राणांप नषैः सह । अन्यः सुधर्मसामीप्ये राजेन्द्रः स तपोऽग्रहीत् ॥१६॥ एवं प्रजिते तस्मिस्तत्पुत्रा नप्तंकुञ्जराः । ग्रन्थार्थपारगाः सर्वे बभूवुः स्वल्पकालतः ॥१७॥ -हरिषेण कथा कोश, कथा ६१, पृ० १३२
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy