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नवमी और दशवी शताब्दी के आचार्य
१९३ दूसरा ग्रन्थ 'रिटणेमिचरिउ' हे जिम में ११२ सधिया ओर १६३७ कवक है । इनमें ६ मन्धिया स्वयभू द्वाग रची गई हैं गेप १. सन्धियो स्वयभू के पुत्र त्रिभवन स्वयम की बनाई हुई है। किन्तु अन्तिम कुछ सन्धिया खण्डित हो जाने के कारण भट्टारक यश कीति ने अपने गुरु गणकीति के सहाय से गोपाचल के समीप स्थित कुमार नगर के पणियार चैत्यालय म उसका समद्धार किया था और परिणाम स्वरूप उन्होन उक्त स्थानों में अपना नाम भी अकित कर दिया। ग्रन्थ में चार काण्ड है, यादव, कुरु, युद्ध पार उत्तर काण्ड ।
प्रथम काण्ड मे १३ सन्धियाँ हैं। जिनमे कृष्ण जन्म, बाललाला, विवाहकथा, प्रद्युम्न ग्रादि की कथाएँ और भगवान नेमिनाथ के जन्म की कथा दी हुई है। ये समुदविजय के पुत्र अोर कृष्ण के चचेरे भाई थे। दूसरे काण्ड मे १६ मन्धिया है, जिनमें कोरव-पाण्न्वी के जन्म, बाल्यकान, शिक्षा प्रादि का कथन, परम्पर का वैमनस्य, युधिष्ठिर का द्यत नीडा मे पगजित होना, दापदी का चीर हरण, तथा पाठवा क बारत वर्ष के वनवास आदि का विस्तृत वर्णन है।
तृतीय वाण्ट मे ६० सन्धियाँ है। कोरव-पाण्डवो के युद्ध वर्णन मे पावो की निजय और कोरवोंकी पराजय प्रादि का सुन्दर चित्रण किया गया है। प्रोर उत्तर काण्ड को २० मन्धिया म कृष्ण के गनिगो के भवातर, गाकुमार का निर्वाण, द्वीपायनमुनि द्वारा द्वारिकादाह, कृष्णनिधन, बलभद्रशाक, हलधर दीक्षा, जरत्कुमार का राज्यलाभ, पाण्डवो का गृहवाम, मोह परित्याग, दीक्षा, नपश्चरण पार उपसर्ग गहन तथा उनके भवातर आदि का कथन, भगवान नेमिनाथ के निर्वाण के बाद ७७ वी मधि के पश्चात् दिया हया है। रिटगामिचरिउ की मधि पुप्पि कानो में स्वयभू को धवलइया का आथित, और त्रिभवन स्वयंभू को वन्दइया का आथित बतलाया है।
मत्स्य देश के राजा विराट के माले काचक ने द्रोपदी का सबके मामने अपमान किया। कवि कल्पना द्वारा उसे मूर्तिमान बना दता है।
यमदूत की तरह कीचकने दोपदी का केश-पाश पकड कर ग्वीचा मोर उसे लातमागे। यह देखकर राजा युधिष्ठिर मूछित हो गए। भीमर प क मारे वक्ष की ओर देखने लगे कि उगे किस तरह मारे। किन्तु युधिष्ठिर ने पर के अगूठ से उन्हें मना कर दिया। उधर पूर की नारिय। व्याकुल हो कहा लगी कि इस दग्ध शरीर का धिक्कार है, इसने ऐसा जघन्य कार्य क्या किया? कलीन नारियो का तो अव मरण ही हो गया, जहा राजा ही दुराचार करता हो, वहा सामान्य जन क्या करेंगे?
सो तेण विलक्खी हवाएण, अणुलग्गे जिह जम दूयएण। विहुरे हि धरे विचलणेहि हय, पेक्वतहं रायहं मुच्छ गय । मणि रोस पट्टिय वल्लभहो, किर देह दिद्व तरु पल्लव हो । मरु मारमि मच्छु स-मेहुणउं, पटवमि कयंत हो पाहुणउ । तो तव-सुएण प्रारुट्टएण, विणिवारिउ चलण गुट्ठएण। प्रोसारिउ विप्रोयरु सणियउ, परवर णारिउ जादणियउ । धि-धि दण्ड सरीर काइकिउ, कूलजायह-जायहं मरणथिउ । र्जाह पउ दुच्चारिउ समायरइ, नहि जण तम्मण्णु काई करइ ॥
-सधि २८-७ ग्रन्थ मे वीर, शृगार, करुण और शान्त रसो का मुख्य रूप से कथन है । वीर रस के साथ शृगार रस की अभिव्यक्ति अपभ्रश काव्यो मे ही दष्टिगोचर होती है। अलकारो में उपमा पार श्लेष का प्रयोग किया गया है।
केवि णीमरतिवीर, अधरव तुगधीर । सायरलव अपमागग, क जरब्य दिण्णणारण । के मरिव्य उद्वकेम, चत्त सव्व-जीविगस । केवि मामि-भत्ति-वत, मच्छिगग्गि-पज्जलत के वि आहवे अभग, कु कुम पसाहि अग। (पउमचरिउ ५७-२