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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
११२५ (सन् १२०३, वि० सं० १२६०) में बनाकर समाप्त की है। पं० टोडरमल्ल जी ने इसी के अनुसार क्षपणासार की टीका की है। इसी से उन्होंने अपनी सम्यकज्ञान चन्द्रिका टीका को लब्धिसार क्षपणासार सहित गोम्मटसार की टीका बतलाई है।
त्रिलोकसार-यह करणानुयोग का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसकी गाथा संख्या १०१८ है। जिनमें कुछ गाथाएँ माधवचन्द्र विद्य की भी हैं। जो नेमिचन्द्राचार्य की सम्मति से शामिल की गई हैं । यह ग्रन्थ आचार्य यतिवृषभ की तिलोयपण्णत्ती से अनुप्राणित है। इसमें सामान्यलोक, भवन, व्यन्तर, ज्योतिप, वैमानिक, और नरक-तिर्यक, लोक ये अधिकार हैं । जम्बूदीप, लवणसमुद्र, मानुषक्षेत्र, भवनवासियों के रहने के स्थान, आवासभवन, प्रायु परिवार आदि
स्तृत वर्णन है । ग्रह, नक्षत्र, प्रकीर्णक, तारा एवं सूर्य चन्द्र के प्राय, विमान, गति, परिवार प्रादि का सांगोपांग वर्णन दिया है। त्रिलोक की रचना सम्बन्धी सभी जानकारी इससे प्राप्त की जा सकती है। इस पर नेमिचन्द्राचार्य के प्रधान शिष्य माधवचन्द्र विद्य की संस्कृत टीका है। गोम्मटसार की तरह इस ग्रंथ का निर्माण भी प्रधानतः चामडराय को लक्ष्य करके---उनके प्रति बोधनार्थ हा है ऐसा टीकाकार माधवचन्द्र ने टीका के प्रारम्भ में व्यक्त
संस्कृत टीका सहित यह ग्रन्थ मणिकचन्द्र ग्रन्थ माला से प्रकाशित हो चुका है। इस ग्रन्थ की हिन्दी टीका पंडित टोडरमल्ल जी ने की है, जिसमें उसके गणित विषय को अच्छी तरह से उद्घाटित किया है।
आर्यसेन
प्रार्यसेन-मूलसंघ वरसेनगण और पोगरीगच्छ के आचार्य ब्रह्मसेन व्रतिप के शिष्य थे। जो अनेक राजाओं से सेवित थे। इनके शिप्य महासेन थे। जैसा कि शिलालेख के निम्न वाक्यों से प्रकट है:
श्रीमूलसंघे जिनधर्ममूले, गणाभिधाने वरसेन नाम्नि। गच्छेसु तुच्छेऽपि पोगर्यमिक्खे, सन्तूयमानो मुनिरार्यसेनः ॥ तस्यार्यसेनस्य मुनीश्वरस्य शिष्यो महासेन महामुनीन्द्रः।
सम्यक्त्वरत्नोज्वलितान्तरंगः संसारनीराकर सेतुभूत [:] ॥ इस शिलालेख में महासेन मुनीन्द्र के छात्र चांदिराज ने, जो वाणसवंश के तथा केतल देवी के प्रॉफिसर थे। उन्होंने पोन्नवाड (वर्तमान होन्वाड) में त्रिभुवन तिलक नाम का चैत्यालय बनवाया, और उसमें तीन वेदियों में शान्ति नाथ, पार्श्वनाथ और सुपार्श्वनाथ की तीन मूर्तियां बनवाकर प्रतिष्ठित की, और उसके लिये कुछ जमीन तथा मकानात शक सं०६७६ (सन् १०५४) जयसंवत्सर में वैशाख महीने की अमावस्या सोमवार के दिन दान दिया। इससे मार्यसेन का समय सन् १०५४ (वि० सं० ११११) सुनिश्चित है।
महासेन महासेन-मूलसंघ वरसेनगण और पोगरिगच्छ के प्राचार्य आर्यसेन के शिष्य थे । इनके गृहस्थ शिष्य चांदिराज ने, जो वाणसवंश में उत्पन्न हया था। उक्त चांदिराज ने त्रिभुवन तिलक नाम का चैत्यालय बनवाया. और उसमें शान्तिनाथ और पार्श्व-सुपार्श्व की मूर्तियां बनवाकर प्रतिष्ठित की, और उनकी पूजादि के लिये महासेन को दान दिया। यह लेख शक सं० ६७६ सन् १०५४ का है । अतः महासेन का समय विक्रम की ११वीं शताब्दी का मध्यकाल होना चाहिये।
१. अमुना माधक्चन्द्र दिय गणिना विद्य चककेशिना,
क्षपणासार मकारि बाहुबलि सन्मंत्रीश संज्ञप्तये । शककाले शरसूर्यचन्द्र गणिते (११२५) जाते पुरे क्षुल्लके शुभदे दु'दुभिवत्सरे विजयतामाचंन्द्रतारं भुवि ।।१६ -क्षपणासार गम प्रशस्ति २. जैन लेख सं० भ०२ पृ० २२७-२८) ३. जैन लेख संग्रह अ-२ १० २२७-२८)