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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
तिह समै लंगोट लिवाय पनि चांद विनती उच्चरी।
मानि हैं जती जुत वस्त्र हम सब श्रावक सौगंद करी ॥६१६ यह घटना फीरोजशाह के राज्यकाल की है, फीरोजशाह का राज्य सं० १४०८ से १४४५ तक रहा है। इस घटना को विद्वज्जन बोधक में सं० १३०५ की बतलाई है जो एक स्थूल भूल का परिणाम जान पड़ता है क्योंकि उस समय तो फीरोजशाह तुगलक का राज्य ही नहीं था फिर उसको सगति कैसे बैठ सकती है। कहा जाता है कि भ० प्रभाचन्द्र ने वस्त्र धारण करके बाद में प्रायश्चित लेकर उनका परित्याग कर दिया था, किन्तु फिर भी वस्त्र धारण करने की परम्परा चालू हो गई।
इसी तरह अनेक घटना क्रमों में समयादि की गड़बड़ी नथा उन्हें बढ़ा-चढ़ा कर लिखने का रिवाज भी हो गया था।
_ दिल्ली में अलाउद्दीन खिलजी के समय राघो चेतन के समय घटने वाली घटना को ऐतिहासिक दृष्टि से विचार किये बिना ही उसे फीरोजशाह तुगलक के समय की घटित बतला दिया गया है। (देखो बुद्धि
स पृ०७६ और महावीर जयन्ती स्मारिका अप्रैल १६६२ का अंक पृ० १२८) ।
राघव चेतन ऐतिहासिक व्यक्ति हैं और अलाउद्दीन खिलजी के ममय हुए हैं । यह व्यास जाति के विद्वान मंत्र, तंत्रवादी और नास्तिक थे। धर्म पर इनको कोई प्रास्था नहीं थी, इनका विवाद मुनि माहवसेन से हना था, उसमें यह पराजित हुए थे।
ऐसी ही घटना जिनप्रभमूरि नामक श्वे० विद्वान के सम्बन्ध में कही जाती है-एक बार सम्राट मुहम्मदशाह तुगलक की सेवा में काशी से चतुर्दश विद्या निपुण मंत्र तंत्रज्ञ राघवचेतन नामक विद्वान पाया। उसने अपनी चातुरी से सम्राट को रंजित कर लिया। सम्राट पर जैनाचार्य श्री जिनप्रभमूरि का प्रभाव उसे बहुत प्रखरता था। अतः उन्हें दोषी ठहरा कर उनका प्रभाव कम करने के लिए सम्राट् को मुद्रिका का अपहरण कर सूरिजी के रजोहरण में प्रच्छन्न रूप से डाल दी। (देखो जिनप्रभसूरि चरित पृ० १२) । जब कि वह घटना अलाउद्दीन खिलजी के समय को होनी चाहिए। इसी तरह कुछ मिलती-जुलती घटना भ० प्रभाचन्द्र के साथ भी जोड़ दी गई है। विद्वानों को इन घटनाचक्रों पर खब सावधानी से विचार कर अन्तिम निर्णय करना चाहिए।
टीका-ग्रन्थ
पटटावली के उक्त पद्य पर से जिसमें यह लिखा गया है कि पूज्यपाद के शास्त्रों की व्याख्या से उन्हें लोक में अच्छा यश और ख्याति मिली थी। किन्तु पूज्यपाद के समाधि तंत्र पर तो पं० प्रभाचन्द्र की टीका उपलब्ध है। टीका केवल शब्दार्थ मात्र को व्यक्त करती है उसमें कोई ऐसी खास विवेचना नहीं मिलती जिसमे उनकी प्रसिद्धि को बल मिल सके । हो सकता है कि वह टीका इन्हीं प्रभाचन्द्र की हो, आत्मानुशासन की टीका भी इन्हीं प्रभाचन्द्र की कृति जान पड़ती है, उसमें भी कोई विशेष व्याख्या उपलब्ध नहीं होती।
रही रत्नकाण्ड श्रावकाचार की टीका की बात, सो उस टीका का उल्लेख पं० आशाधरजी ने अनगार धर्मामत की टीका में किया है।
"यथास्तत्रः-भगवन्तः श्रीमत्प्रभेन्दुपादारत्नकरण्डटीकायां चतुरावर्तत्रितय इत्यादि सूत्र द्विनिषद्यइत्यस्यव्याख्यानेदेववन्दनां कुर्वताहि प्रारम्भे समाप्तौचोपविश्य प्रणामः कर्तव्य इति ।"
इन टीकाओं पर विचार करने से यह बात तो सहज ही ज्ञात होती है कि इन टीकानों का प्रादि-अन्त मंगल और टीका की प्रारंभिकसरणी में बहुत कुछ समानता दृष्टिगोचर होती है। इससे इन टीकानों का कर्ता कोई एक ही प्रभाचन्द्र होना चाहिये । हो सकता है कि टीकाकार की पहली कृति रत्नकरण्डकटीका ही हो। और शेष, टीकाएं बाद में बनी हों। पर इन टीकानों का कर्ता प्रभाचन्द्र पं० प्रभाचन्द्र ही है, प्रमेयकमलमातंण्ड के कर्ता प्रभाचन्द्र इनके कर्ता नहीं हो सकते। क्योंकि इन टीकामों में विषय का चयन और भापा का वैसा सामंजस्य अथवा उसकी वह प्रौढता नहीं दिखाई देती, जो प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकूमूदचन्द्र में दिखाई देती है। यह प्रायः सनि.