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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २
इसमें सन्देह नही कि दुर्योधन महा अभिमानी और ईर्षालु ओर कौरवों का पक्षपाती था। वह पांडवों को निर्दोप मानता हरा भी उनके प्रतिकार करने की भावना रखता था। फिर भी उसमें कुछ मानवोचित गुण भी थे, उनका सर्वथा भुलाया नहीं जा सकता। जब वह युद्ध स्थल में मारे गए अपन स्नेही ओर गुरुजनों आदि का देखता है तब वह उनक प्रति स्वाभाविक गरु भक्ति प्रकट करता हुआ स्नेहो जना क वियोग से खिन्न हाता है। ओर उनक विनाश में दुर्नय एव दुष्टता का कारण मानता हुआ पश्चाताप करता है। और भीष्म के चरणा में पड़ कर उनसे क्षमा मागता है । आगे शत्रुकुमारी में पराक्रमी बालक अभिमन्यु को देखता है तब उसके साहस पार वारता का मुक्त कंठ से प्रशसा करता हुआ दुर्योधन हाथ जोड़कर प्रार्थना करता है कि मुझे भी इसी प्रकार वार मरण प्राप्त हा।
रन्न कवि का 'गदायुद्ध' बहुत हा मार्मिक आर वस्तुतत्व का यथार्थरूप में चित्रण करता है। महाभारत में सर्वत्र भीम के साहस की प्रशसा मिलेगी। किन्तु रन्न कवि के गदायुद्ध म दुर्याधन क सामने भाम का साहस निस्तेज (फीका) हो जाता है अधिकाश ग्रन्थ कर्ताओं ने द्रोपदि के वस्त्रापहरण आदि अनुचित घटनाओं के कारण दर्योधन को कलकी आदि अपशब्दों में दोपी ठहराया है वह हठी होते हए भी उसमें उदारता आदि गुण अवश्य थे । भीम भो अभिमानो प्रतापी और साहसी था। उसकी गदा प्रहार से जर दुर्योधन के उरु भंग हो गए। उसकी असह्य पीड़ा से पीडित और रक्त आद्रित मरणासन्न दुर्योधन के मुकट को लात मारना किसी तरह भी उचित नही कहा जा सकता, वह भीम का अनुचित कार्य था । रन्न का दुर्योधन अन्ततक क्षात्र धर्म का पालन करता है। भीम में हसी आदि कुछ ऐसे दोप भी थे जिनके कारण महा प्रतापी नारायण कृष्ण भी पाण्डवों मे विरक्त हो गए थे। रन्न कवि का 'रन्न कन्द' नाम का एक छोटा-सा कविता ग्रन्थ भी है।
गुणनन्दि गुणनन्दि-नन्दि सघ देशीय गण के प्राचार्य दलाकपिच्छ के शिप्य थे। जो भव्यरूपी कमलों को विकसित करने वाले पद्म बन्ध थे। मुनियों के स्वामी देगीय गण में अग्रणीय, और गुणाकर तथा गणधर के समान थे। उनकी विद्वता और महत्ता का सहज ही अनुमान हो जाता है । जैसाकि कि निम्न पद्य मे प्रकट है:
बभूब भव्याम्बुजपद्मबन्धुः पतिर्मुनीनां गणभृत्समानः ।
__सदग्रणी देशगणाग्रगण्यो गुणाकरः श्रीगुणनन्दिनामा ॥ श्रवण बेल्गोल के ४७ व शिलालेख में बतलाया गया है कि गुणनन्दि प्राचार्य के तीन सौ ३०० शिष्य थे। उनमें ७२ सिद्धान्त शारत्र के नर्मज्ञ विद्वान थे। विबुधगुण नन्दि भी इन्ही के शिप्य थे। विबुधगणनन्दि के शिष्य अभय नन्दि थे उन शिष्यों में देवेन्द्र गेडान्तिक सबसे अधिक प्रसिद्ध थे।' इन देवेन्द्र सेद्धान्तिक के एक शिष्य कलधौतनन्दि या कनक नन्दि मिद्धान्तच कवना थे जिन्होंने इन्द्रनन्दि गुरु के पास सिद्धान्त शास्त्र का अध्ययन किया था और सत्व स्थान की रचना की थी। इस लेख के उत्कीर्ण होने का समय शक स० १०२६ सन् ११०७ है। किन्तु प्रस्तुत प्राचार्य का समय उक्त शिलालेख से है। वे दशवों शताब्दी के विद्वान थे।
यशोदेव यशोदेव-गौड संघ के मान्य मुनि थे। उग्र तप के प्रभाव से जिनका शासन देवता से समागम तछिटो गृगानन्दि पण्टिन निश्चारित्रचक्रेश्वरम्नर्क बनाकरणादि गाम्बनिपुरणस्माहित्य विद्यापतिः ! मिथ्यावादिमदान्धमिन्धरघटामंघट्टकण्ठीरवो, भय्याम्भोज दिवाकरो विजयता कन्दर्पदप्पापहः ।।७।। नच्छिप्पा स्त्रिशताविवेक निधयश्शास्त्राब्धिपारङ्गताम्तेषुत्कृष्टलगा द्विनप्नतिमिता सिद्धान्तशास्त्रार्थक -- व्याख्याने पटवो विचित्रचरितास्तेषु प्रसिद्धो मुनिः । नानानूननयप्रमाणनिपुणो देवेन्द्रसद्धान्तिकः ॥८
-जन लेख सं० भा० १ पृ० ५८-५८