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नवमी दसवी शताब्दी के आचार्य
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हना था। यह महान ऋद्धि के धारक थे। इन्ही के शिप्य नेमिदेव थे, जो स्याद्वाद समुद्र के उस पार तक देखने वाले
और परवादियों के दर्परूपी वृक्षों को छेदने के लिये कुठार थे। प्राचार्य सोमदेव ने नीतिवावयामत की प्रशस्ति में नेमिदेव को ५५ महावादियों को पराजित करने वाला बतलाया है। पोर यशस्तिलक की प्रशस्ति मे १३ महावादियों को जीतने वाला लिखा है। इनका समय सं०६७५ होना चाहिये।
नेमिदेवाचार्य नेमिदेवाचार्य-यह देव संघ के विद्वान यशादेव के शिष्य थे। बड़े भागे विद्वान ओर वाद विजेता थे। इन्हीं के शिष्य सोमदेव थे । सोमदेव ने अपने गुरु नेमिदेवाचार्य को नीनिवावावयामृत प्रशस्ति मे पचपन ( ५५ ) वादियों का विजेता बतलाया है। जैसा कि उसके निम्न प्रशस्ति वाक्य ने प्रकट :
'सकलताकिक चकचूडामणि चम्बित-चरणस्य पंच पंचामहावादि विजयोपाजित कीति मन्दाकिनी पवित्रित त्रिभुवनस्य, परम तपश्चरणरत्नोदन्वतः श्री मन्नेमिदेव भगवर:'।
- नीतिवाक्यामृत प्रशस्ति वे तार्किक चक्रचूड़ामणि, और सपाटाद रूप रत्नाकर के पारदर्गी Tथा परवादियों के दर्दा रूपी द्रुमावली को छेदने के लिये 'कुठाग्नेमि'-कुदाली को-धार थे।
सोमदेवाचार्य ने जब यशस्तिलक चम्पू बनाया, उस समय तक उ समिदेव नगनये वादियों को जीत लिया था। जैसाकि यशस्तिलक चम्प के निम्न पद्य में प्रकट है :
श्रीमान स्नि देवरापतिलको देवो यशःपूर्वकः । शिष्यस्तस्य बभव सद्गुणनिधिः श्रीनेमिदेवाहयः ।। तस्याश्चर्य तपः स्थितेस्त्रिनवते जैतर्गहावादिनां।
शिष्यो भूदिह सोमदेव यतिपस्तस्येव काव्य क्रमः (-यशस्तिलक चम्पू प्रशस्ति) इनके बहुत शिप्य थे। जिनमें से एक शतक शिष्यों के अपरज ( अनुज ) ग्रार शतक के पूर्वज सोमदेव थे, ऐसा परभणी के ताम्र पत्र से ज्ञात होता है।
इससे नेमिदेव की विद्वत्ता और महत्ता का सहज ही भान हो जाता है और यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि नेमिदेव उस समय के ताकिक विद्वानों में सर्वथष्ठ। ओर नीतिवाक्यामत और यशस्तिलक चन्पू की प्रशस्तियों से यह निश्चित होता है कि वे दोनों रचनायो के समय मौजदये। नकि यगस्तिलक की रचना गक स०८८१ (वि० सं० १०१६ ) में हुई है। अत. नेमिदेव उस समय जीवित थे। उन बाद वे पार कितने सगय नक जीवित रहे, यह कुछ ज्ञात नहीं होता । अतएव इनका समय विक्रम की १० नी ताब्दी का उपान्त्य भाग है।
महेन्द्र देव महेन्द्रदेव-देव संघ के आचार्य नेमिदेव के शिष्य थे यार सामदेवाचार्य, अनुज पार बड़ गुरु
- परभणी ताम्रपत्र
-वही
१. श्री गौढ़सघं मुनिमान्यकीतिनाग्ना यशोदेव इति प्रजज्ञे।
बभूब यस्योग्रतपः प्रभावात्रामागम. शासनदेवताभिः ।।१५ २. शिप्योभवत्तस्यमहडिभाजः स्याद्वादरलाकरपारदृश्या ।
श्रीनेमिदेवः परवादिदप्पंद्र मावलीच्छेद कुठारनेमिः ॥१६ तस्मात्तपःपश्रियो भत्तुल्लोकाना हृदयंगमाः । बभूवुर्वहवःशिष्या रत्नानीव नदाकरात् ॥१७॥ तेषा शतम्यावरजः शतस्य तपाभवत्यूर्वज एव धीमान् । श्री सोमदेवस्तपसः श्रुतस्य स्थान यशोधाम गुणोजितश्रीः ।।१८
-वही