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गुणधर
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तरह फलदान की शक्ति उत्पन्न होती है और कर्म कितने समय तक आत्मा के साथ सलग्न रहते है प्रादि का विस्तृत और स्पष्ट विवेचन किया गया है।
ग्रन्थ सोलह अधिकारों में विभक्त है- १. पेज्जदोस विभक्ति - इस अधिकार में संसार में परिभ्रमण का कारण कर्म बन्ध वतलाया है और उस कर्मबन्ध का कारण है राग-द्वेष । रागद्वेप का ही दूसरा नाम कपाय है। इसके स्वरूप और भेद-प्रभेदों का इसमें विस्तार पूर्वक कथन किया गया है ।
२. स्थिति विभक्ति - प्रथम अधिकार में प्रकृति विभक्त, स्थिति विभक्त आदि छह अवान्तर अधिकार बतलाये हैं । उनमें प्रकृति विभवित का वर्णन प्रथम अधिकार में दिया है । और कर्मप्रकृति का स्वरूप, कारण एवं भेद-प्रभेदों का इसमें वर्णन है ।
३. प्रनुभाग विभक्ति - कर्मो की फल-दान-शक्ति का प्रतिपादन इस अधिकार में किया गया है। इसमें प्रदेश, क्षीणाक्षीण और स्थित्यन्तक ये तीन अवान्तर अधिकार है।
४. बन्ध अधिकार जीव के मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद, कपाय और योग के निमित्त मे पुद्गल परमाणुओं का कर्मरूप से परिणमन होकर जीव के प्रदेशों के साथ एकक्षेत्र रूप मे बधने को बंध कहते है । इस अधिकार में कर्मबन्ध का निरूपण किया गया है।
५. संक्रम अधिकार-बधे हुए कर्मो का यथासम्भव अपने अवान्तर भेदों में संक्रान्त या परिवर्तित होने को संक्रम कहते हैं । बन्ध के समान मक्रम के भी चार अवान्तर अधिकार है। प्रकृति सक्रम, स्थिति संक्रम, अनुभाग संक्रम और प्रदेश संक्रम ।
६, वेदक अधिकार मोहनीय कर्म के फलानुभवन का वर्णन इस अधिकार में किया गया है । कर्म अपना फल उदय और उदीरणा से भी देते है। स्थिति के अनुसार निश्चित समय पर कर्म के फल देने को उदय कहते हैं । और उपाय विशेष से अममय में ही निश्चित समय के पूर्व फल देने को उदीरणा कहते हैं । यथा- प्रान का समय पर पक कर स्वयं गिरना उदय है, और पकने से पूर्व ही उसे तोड़कर पाल आदि में पका देना उदीरणा है । उदय और उदीरणाका अनेक अनुयोग द्वारों से विवेचन किया गया है।
७. उपयोग अधिकार - जीव के क्रोध, मान, मायादि रूप परिणामों के होने को उपयोग कहते हैं । इस अधिकार में क्रोधादि चारों कपायों के उपयोग का वर्णन किया गया है। और बतलाया गया है कि एक जीव के एक कपाय का उदय कितने काल तक रहता है । कपाय और जीव के सम्बन्धो का विभिन्न दृष्टिकोणों से विवेचन किया है ।
८. चतुःस्थान अधिकार इस अधिकार में शक्ति की अपेक्षा कपायों का वर्णन किया गया है। क्रोध चार प्रकार का है- पापाण रेखा के समान । जिस तरह पाषाण पर खीची गयी रेखा बहुत समय के बाद मिटती है, उसी प्रकार जो क्रोध तीव्र रूप में अधिक समय तक रहने वाला हो, वह पापाण रेखा के तुल्य है । यही क्रोध कालान्तर में शत्रुता के रूप में परिणत हो जाता है। पृथ्वी, धूली और जल रेखाये उत्तरात्तर कम समय में मिटती हैं । इस प्रकार शोध भी उत्तरोतर कम समय तक रहता है तथा उसकी शक्ति में भी तारतम्य निहित रहता है । उसी तरह अन्य कपाय का भी निरूपण किया गया है ।
६. व्यंजन अधिकार व्यंजन शब्द का अर्थ 'पर्यायवाची शब्दों का निरूपण करना है । इस अधिकार में क्रोध के पर्यायवाची रोप, प्रक्षमा, कलह, विवाद, कोप, संज्वलन, द्वेष, भंभा, वृद्धि और क्रोध ये दश शब्द हैं । गुस्सा को क्रोध या कोप कहते है । क्रोध के प्रवेश को रोष, शान्ति के प्रभाव को अक्षमा, स्व औौर पर दोनों को जलावेसन्ताप उत्पन्न करे उसे सज्वलन, दूसरे से लड़ने को कलह, पाप, अपयश और शत्रुता की वृद्धि करने को वृद्धि; अत्यन्त संक्लेश परिणाम को झझा, ग्रान्तरिक प्रीति या कलुपता को द्वेष, एवं स्पर्धा या संघर्ष को विवाद कहा है। मान के मान, मद, दर्प स्तम्भ और परिभन श्रादि । माया के माया, निकृति वंचना, सातियोग और अनुजुता आदि, लोभ के लोभ, राग, निदान प्रयग, मूर्च्छा आदि । कपाय के विविध नामों द्वारा अनेक ज्ञातव्य बातों पर या प्रकाश पड़ता है ।