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कुन्दकुन्दाचाय
ध्यान की श्रावश्यकता और महत्ता बतलाई है। इन छह प्राभृतों पर ब्रह्म श्रुतसागर की संस्कृत टीका है, जो प्रकाशित हो चुकी है।
सील पाहुड - इसमें ४० गाथाएं हैं जिसके द्वारा शील का महत्व बतलाया गया है और लिखा है कि शील का ज्ञान के साथ कोई विरोध नहीं है । परन्तु शील के बिना विषय-वासना से ज्ञान नष्ट हो जाता है। जो ज्ञान को पाकर भी विषयों में रत रहते हैं वे चतुर्गतियों में भटकते हैं और जो ज्ञान को पाकर विषयों से विरक्त रहते हैं, वे भव-भ्रमण को काट डालते हैं ।
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बारसाणुपेक्खा (द्वादशानुप्रक्षा ) – इसमें ११ गाथाओं द्वारा वैराग्योत्पादक द्वादश अनुप्रेक्षाओं का बहुत ही सुन्दर वर्णन हुआ है । वस्तु स्वरूप के बार-बार चिन्तन का नाम अनुप्रक्षा है। उनके नामों का क्रम इस प्रकार है :
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प्रद्ध वमसरण मेग तमण्णसंसार लोगमसुचितं । श्रासव संवर णिज्जरधम्मं वोहिं च चितेज्जो ॥
अध्रुव, शरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, प्रशुचित्व, प्रास्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और बोधि । तत्वार्थ सूत्रकार ने अनुप्र ेक्षाओं के क्रम कुछ परिवर्तन किया है। अनित्याशरणसंसारैकत्वान्यत्वाशुच्या स्रव संवरनिर्जरालोकबोधिदुर्लभ धर्मस्वाख्यातत्त्वानुचिन्तनमनुप्रक्षाः ।
आचार्य कुन्दकुन्द ने इन बारह भावनाओं के चिन्तन द्वारा श्रमणों के वैराग्य भाव को सुदृढ़ किया है। देवनन्दी ( पूज्यपाद) की सर्वार्थसिद्धि के दूसरे अध्याय के 'संसारिणो मुक्ताश्च' की टीका में वारस अनुप्रक्षा की पांच गाथाएं उद्धृत की हैं ।
रयणसार भी कुन्दकुन्दाचार्य की कृति कही जाती है, परन्तु उस रचना में एकरूपता नहीं। -गाथाओं की ऐसी स्थिति में जब तक उसकी जांच द्वारा मूलगाथाओं की सूचक प्रक्षिप्त गाथाओं का निर्णय नहीं हो जाता, तब तक
क्रम संख्या भी बढ़ी हुई है, अनेक गाथाएं प्रक्षिप्त हैं । संख्या निश्चित नही हो जाती और गण गच्छादि की उसे कुन्दकुन्दाचार्य की कृति नहीं माना जा सकता ।
अब रही मूलाचार और थिरुकुरल के रचयिता की बात, सो मूलाचार को कुन्दकुन्दाचार्य की कृति कहना या मानना अभी तक विवादास्पद बना हुआ है । यद्यपि मूलाचार में कुन्दकुन्द के अन्य ग्रन्थों की अनेक गाथाएं भी पाई जाती हैं और उसका पांचवीं शताब्दी के 'तिलोय पण्णत्ति' ग्रन्थ में उल्लेख होने से वह रचना पुरातन है । परन्तु उसका कर्ता वसुनन्दि ने 'वट्टर' सूचित किया है । यद्यपि वट्टकेराचार्य का कोई अन्य उल्लेख प्राप्त नहीं है, और न उनको गुरु परम्परादि का कोई उल्लेख उपलब्ध ही है । ग्रन्थ में 'संघवट्टओ' जैसे शब्दों का उल्लेख है, जिसका अर्थ संघ का उपकार करने वाला टीकाकार ने किया है। उसे कुन्दकुन्दाचार्य की कृति मानने के लिए कुछ ठोस प्रमाणों की आवश्यकता है । इसमें कोई सन्देह नहीं कि वह मूलसंघ की परम्परा का ग्रन्थ है ।
थिरुक्कुरल – जैन रचना है, यह निश्चित है । परन्तु वह कुन्दकुन्दाचार्य की कृति है, और कुन्दकुन्दाचार्य का दूसरा नाम 'एलाचार्य' था, इसे प्रमाणित करने के लिये अन्य प्राचीन प्रमाणों की आवश्यकता है। उसके प्रमाणित होने पर थिरुकुरल को कुन्दकुन्द की रचना मानने में कोई संकोच नहीं हो सकता । स्व० प्रो० चक्रवर्ती ने इस दिशा में जो शोध-खोज की है, वह अनुकरणीय है । अन्य विद्वानों को इस पर विचार कर अन्तिम निर्णय करना श्रावश्यक है | बहुत सम्भव है कि वह कुन्दकुन्दाचार्य की ही रचना हो ।
भक्ति संग्रह प्राकृत भाषा की कुछ भक्तियाँ भी कुन्दकुन्दाचार्य की कृति मानी जाती हैं। भक्तियों के टीकाकार प्रभाचन्द्राचार्य ने लिखा है कि- 'संस्कृता सर्वा भक्तयः पादपूज्य स्वामिकृताः प्राकृतास्तु कुन्दकुन्दाचार्यकृताः ।' अर्थात संस्कृत