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ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
२८९ २१७ पद्यों में किया है । पूरे ग्रन्थ में ६२२ पद्य हैं यह ग्रन्थ वि० सं० १०५० में पोप सुदी पंचमी को समाप्त हमा है । जब यह ग्रन्थ समाप्त हुआ उस समय मुज राज्य करता था।
कवि ने अपने सुभापितों का उद्देश्य बतलाते हुए लिखा है कि
जनयति मुदमन्तव्यपाथो रहाणां, हरति तिमिरराशि या प्रभा भावनीव ।
कृत निखिल पदार्थ द्योतना भारतीद्धा, विवरतु धुत दोषा संहितां भारती वः॥
जिस तरह सूर्य की किरण अन्धकार का विनाशकर समस्त पदार्थो को प्रकाशित करती हैं और कमलों को विकसित करती है। उसी प्रकार ये सुभापित चेतन-प्रचंतन-विषयक अज्ञान को दूर कर भव्यजनों के चित्त को प्रसन्न करते है। कवि ने ज्ञान का महत्व बतलाते हुए लिखा है कि
ज्ञानं बिना नास्त्य हितान्निवृत्तिस्ततः प्रवृत्ति नं हिते जनानाम् ।
ततो न पूर्वाजितकर्मनाशस्ततो न सौख्यं लभतेऽप्यभीष्टम् ॥ ज्ञान के बिना मानव की अहित मे निवृत्ति नहीं होती, अहित को निवृत्ति न होने से हितकार्य में प्रवृत्ति नही होती । हित कार्य में प्रवृत्ति न होने से पूर्वोपाजित कर्म का विनाश नहीं होता और पूर्वोपार्जित कर्मका विनाश न हाने में अभीष्ट मोक्ष सुख की प्राप्ति नहीं होती।
इसी तरह वृद्धावग्था का चित्रण करते हुए लिखा है कि जब मनुष्य जरा (बुढ़ापा) से ग्रस्त हो जाता है नब उसका सम्पूर्ण रूप नष्ट भ्रष्ट होने लगता है। बोलने में थूक गिरता है, चलने में पैर टेढ़े हो जाते हैं। बुद्धि अपना काम नहीं करती। पत्नी भी मेवा-शुश्रूषा करना छोड़ देती है । और पुत्र भी आज्ञा नही मानता।
इस तरह यह ग्रथ सुन्दर मूक्तियों से विभूषित है। और कण्ठ करने योग्य है।
धर्म परीक्षा-संस्कृत साहित्य में अपने ढंग की कृति है। इसमें पुराणों की ऊट-पटांग कथाओं और मान्यताओं का मनोरंजक रूप में मजाक करते हुए उन्हे अविश्वासनीय बतलाया है । समूचा ग्रन्थ १६४५ श्लोकों में सुन्दर कथा के रूप में निबद्ध है। जिसे कवि ने दो महीने में बनाया था। हरिपेण की 'धर्म परीक्षा' विक्रम संवत १०४४ में बनी है। हरिषेण ने लिखा है कि उससे पहले जयराम की गाथाबद्ध धर्म परीक्षा थी। उसे मैंने पद्धडिया छन्द में किया है। बहुत सभव है कि इस पर हरिषेण की धर्म परीक्षा और हरिभद्र के धूर्ताख्यान का प्रभाव पड़ा हो । क्योंकि पात्रों के नामादि 'धर्मपरीक्षा' के समान हैं। इस कारण वह इसका प्राधार रही हो । तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है । यह ग्रन्थ विक्रम स० १०७० में बनाकर समाप्त किया है।
पंचस ग्रह-यह प्राकृत पंचसंग्रह का अनुवाद है। इस पर डड्ढा के पचसग्रह का प्रभाव है, वह अमितगति के सामने मौजद था। इसमें कर्मबन्ध, उदय, उदीरणा और सत्ता प्रादि का वर्णन है। इसकी रचना कवि ने
१ समारूढे पूत त्रिदशवमति विक्रमनपे, महा वर्षाणा प्रभवतिहि पचाशदधिके । समाप्ते पचम्यामवति धरिणी मुंजनपतो। सिते पक्षे पौरे बुधहितमिदं शास्त्रमनघम् सुभाषित रत्न सन्दोह प्रशस्ति । २ गलति सकलरूपं लाला विमुञ्चति जल्पनं, म्वलति गमनं दन्तानाशं श्रयन्ति शरीरिणः । विरमति मतिनों शुश्रूषां करोति च गेहिनी। वपुषि जरसा ग्रस्ते वाक्यं तनोति न देहजः ॥२७६॥ ३ अमितगतिरिवेदं स्वस्थ मास द्वयेन ।
प्रथित विशदकीत्तिः काव्य मुद्भूत दोषम् ॥ ४ संवत्मराणां विगते सहस्त्रे स सप्ततौ विक्रमपार्थिवस्य ।
इदं निषिध्यान्यमतं समाप्त जैनेन्द्रधर्मामृतयुक्तिशास्त्रम् ।।