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१५वीं, १६वीं, १७वीं और १८वीं शताब्दी के आचार्य, भट्टाक और कवि
५३६ विशालकोतिश्च विशालकोतिः जम्बू मांके विमलेश देवः । विभाति विद्यार्णव एव नित्यं वैराग्यपाथोनिधि शुद्धचेताः ॥ श्रीविश्वसेनो यतिवृन्दमुख्यो विराजते वीतभयः सलीलः ।
स्वतर्क निर्नाशित सर्वडिम्भः विख्यातकीतिजितमारमूतिः ॥५५॥ कवि की एकमात्र कृति 'षण्णवति क्षेत्रपाल' पूजा है। कवि ने उसमें रचना काल नहीं दिया। अतएव यह निश्चित करना कठिन है कि भ० विश्वसेन ने इसकी रचना कब की।
इन्होंने सं० १५९६ में एक मूर्ति की प्रतिष्ठा की थी। इनके द्वारा रची आराधनासार की टीका सेन गण भंडार नागपुर में उपलब्ध है।
___ भट्टारक श्रीभूषण ने अपने शान्तिनाथ पुराण में अपनी गुरु परम्परा का उल्लेख करते हुए विशालकीर्ति के शिष्य भ० विश्वसेन का उल्लेख किया है। इनके शिष्य विद्याभूषण थे। अतएव इनका समय विक्रम की १६वीं शताब्दी का अन्तिम चरण है।
भ० विद्याभूषण काष्ठा संघ नन्दी तटगच्छ और विद्यागण के विद्वान भटारक विश्वसेन सूरि के शिष्य थे। संस्कृत और गुजराती भाषा के विद्वान् थे। इनकी संस्कृत और हिन्दो गुजराती मिश्रित अनेक रचनाए उपलब्ध है।
जम्बूस्वामी चरित्र, वर्द्धमान चरित्र, बारह सा चौंतीस विधान पल्यविधान पूजा, ऋषिमण्डल यत्र पूजा, वृहत्कलिकुण्ड पूजा, सिद्धयंत्र मत्रोद्धार स्तवन-पूजन। इनमें जम्बूस्वामी चरित्र की रचना सं० १६५३ में की है, और पल्य विधान पूजा की रचना सवत १६१४ में समाप्त की है।
___ इनके उपदेश से बडौदा के वाडी मुहल्ले के दि. जैन मन्दिर में पार्श्वनाथ की प्रतिमा सं० १६०४ में प्रतिष्ठित कराई थी जिसे इनको दीक्षित शिप्या हुवड अनंतमती ने की थी।
इन्होंने गुजरातो में भविष्यदत्तरास की रचना सं० १६०० में को थी। द्वादशानुप्रक्षा (द्वादश भावना)। नेमीश्वर फाग ३१५ पद्यों में रचो गई हैं। यह एक सात्हियक कृति है, इसके २५१ पद्यां में नेमिनाथ का जीवन परिचय प्रकित किया गया है दश भवान्तरों के साथ। इसके प्रारम्भ के दो पद्य सस्कृत में हैं और कहीं-कहीं मध्य में भी सस्कृत पद्य पाये जाते है। इनका समय १६०० से १६५३ तक सुनिश्चित है। यह १७वी शताब्दी के भट्टारक है ।
भट्टारक श्रीभूषण यह काष्ठा सघ नन्दि तटगच्छ और विद्या गण में प्रसिद्ध होने वाले रामसेन, नेमिसेन, लक्ष्मीसेन, धर्मसेन, विमलसन, विशालकोति, और विश्वसन, आदि भट्टारको को परम्परा में होने वाले भट्टार पट्टधर थ । पार साजित्रा (गुजरात) को गद्दी के पट्टधर थे। भट्टारक समुदाय से ज्ञात होता है कि इनके पिता का नाम कृष्णासाह और माता का नाम माकुहा था। अच्छे विद्वान थे, परन्तु मूलसंघ से विद्वेष रखते थे। उसके प्रति उनका ताव कषाय थी । पं० नाथूराम जा प्रमो ने अपन जैन साहित्य पोर इतिहास के पृष्ठ ३६१ में उनके प्रतिबाधचिन्तामणि' नामक संस्कृत ग्रन्थ का परिचय कराया है। उससे उनकी उस विद्वष रूप परिणति का सहज ही पदाफाश हो जाता है । साजित्रा में काष्ठा संघ के भट्टारका को गही थी, जो अब नही है। भ० विद्याभूषण स० १६०४ में उक्त पट्ट पर मौजूद थे । उक्त सम्वत् में उनके उपदेश से पार्श्वनाथ की मूर्ति की प्रतिष्ठा हूंबड
१. सं० १५६६ वर्षे फा० वदि २ सोभे काष्ठा संघे नरसिहपुरा ज्ञातीय नागर गोत्र भ. रत्नश्री भा० लीलादे नित्य प्रणमति भ. श्री विश्वसेन प्रतिष्ठा ।
-भ. सम्प्रदाय पृ० २६९