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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ पहले चामुण्डराय -वस्ति में मौजूद थी। परन्तु बाद को मालूम नहीं कहां चली गई। उसके स्थान पर नेमिनाथ की एक-दूसरी पांच फुट की उन्नत प्रतिमा अन्यत्र से लाकर विराजमान कर दी गई है, जो अपने लेख पर से एचन के बनवाए हए मन्दिर की मालूम होती है। और 'दक्षिण कुक्कुटजिन' बाहुबली की प्रसिद्ध एवं विशाल उस मूर्ति का ही नामान्तर है। यह नाम अनुश्रुति अथवा कथानक को लिये हुए है । उसका तात्पर्य इतना ही है कि पोदनपुर में भरत चक्रवर्ती ने बाहुबली की उन्हीं की शरीराकृति जसो मूर्ति बनवाई थी, जो कुक्कुट सौ से व्याप्त हो जाने के कारण उसका दर्शन दुर्लभ हो गया था। उसो के अनुरूप यह मूर्ति दक्षिण में विन्ध्यगिरि पर स्थापित की गई है और उत्तर की उस मति से भिन्नता बतलाने के लिये हो इसे दक्षिण विशेषण दिया गया है। इससे यह बात स्पष्ट हो गई कि गोम्मट बाहबली का नाम न होकर चामुण्डराय का घरु नाम था। और उनके द्वारा निर्मित होने के कारण मति का नाम भी 'गोम्मटेश्वर या गोम्मट देव' प्रसिद्ध हो गया। प्राचार्य नेमिचन्द्र ने चामुण्डराय द्वारा निर्मापित श्रवण वेलगोला में स्थित गोम्मट स्वामी बाहुबली की अद्भुत विशाल मूर्ति की प्रतिष्ठा चैत्र शुक्ला पंचमी रविवार २२ मा सन् १०२८ में की थी । यह मूति अपनी कलात्मकता और विशालता में अतुलनीय है । उसके दर्शन मात्र से प्रात्मा अपूर्व आनन्द को पाता है । मूर्ति अत्यन्त दर्शनीय है। रचना
प्राचार्य नेमिचन्द्र सि० चक्रवर्ती की निम्न कृतियां प्रकाशित हैं। गोम्मटसार, लब्धिसार, क्षपणासार त्रिलोकसार।
गोम्मटसार-एक सैद्धान्तिक ग्रन्थ है, जिसमें जीवस्थान, क्षुद्रबन्ध, बन्धस्वामित्व, वेदनाखण्ड, और वर्गणाखण्ड, इन पांच विषयों का वर्णन है। इस कारण इसका अपर नाम पंचसग्रह भी है । गोम्मटसार ग्रन्थ दो भागों में विभक्त है। जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड ।
जीवकाण्ड में ७३३ गाथा है जिसमें गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, चौदहमार्गणा और उपयोग। इन बीस प्ररूपणामों द्वारा जीव की अनेक अवस्थाओं और भावों का वर्णन किया गया है। अभेदविवक्षा से इन बीस प्ररूपणाओं का अन्तर्भाव गुणस्थान और मार्गणा इन दो प्ररूपणाओं में हो जाता है क्योंकि मार्गणाओं में ही जीवसमास, पर्याप्ति,प्राण संज्ञा और उपयोग इनका अन्तर्भाव हो सकता है । इसलिये दो प्ररूपणएं कही हैं। किन्तु भेदविवक्षा से २० प्ररूपणाएं कही गई हैं।
कर्मकाण्ड-में ७२ गाथाएं हैं, जिनमें प्रकृति समूत्कीर्तन, बन्धोदय, सत्वाधिकार, सत्वस्थानभंग, त्रिचलिका यात समत्कीर्तन, प्रत्ययाधिकार, भावचूलिका और कर्म स्थिति रचना नामक नौ अधिकारों में कर्म की विभिन्न अवस्थामों का निरूपण किया गया है। - टीकाएं-गोम्मटसार ग्रन्थ पर छह टीकाएं उपलब्ध हैं। एक अभयचन्द्राचार्य की संस्कृतटीका 'मन्द
का जो जीवकाण्ड की ३८३ नं० की गाथा तक ही पाई जाती है, शेष भाग पर बनी या नहीं; इसका कोई निश्चय नहीं । दूसरी, केशववर्णी की, जो संस्कृत मिश्रित कनडी टीका जीवतत्त्व प्रबोधिका, जो दोनों काण्डों पर किनार को लिये हए है। इसमें मन्दप्रबोधिका का पूरा अनुसरण किया गया है। तीसरी, नेमिचन्द्राचार्य की संस्कृत टीका जीवतत्त्व प्रदीपिका है, जो पिछली दोनों टीकाओं का गाढ़ अनुसरण करती है। चौथी, टीका प्राकृतभाषा को है जो अपर्ण है और अजमेर के भट्टारकीय भण्डार में अवस्थित है । पाँचवी पंजिका टीका है जिसका उल्लेख अभयचन्द्र को मन्द प्रबोधिका में निहित है। इस पंजिका की एक मात्र उपलब्ध प्रति मेरे संग्रह में है, जो सं० १५६० को
१. गुण जीवा पज्जत्ती पाणा सण्णाय मग्गणाओ य ।
उवओगो वि य कमसो वीसं तु परूवणा भरिणदा ।।२।। २. 'अथवा सम्मूर्छन गर्भोपपादानाथित जन्म भवनीति गोम्मट पंचिका कागदीनामभिप्रायः।' गो० जी० मन्द्र प्रबोधिका टीका, गा०६३।