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ग्यारहवीं औरबारहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य
नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती प्रस्तुत नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती मूलसंघ देशीयगण के विद्वान अभयनन्दी के शिष्य थे । इन्होंने स्वयं अपने को प्रभयनन्दी का शिष्य सूचित किया है। अभयनन्दी उस समय के बड़े सैद्धान्तिक विद्वान थे। उनके वीरनन्दी, और इन्द्रनन्दी भी शिष्य थे। ये दोनों नेमिचन्द्र के ज्येष्ठ गरुभाई थे। इस कारण गुरु तुल्य मानकर नमस्कार किया है और उनका अपने को शिष्य भी बतलाया है । नेमिचन्द्र ने अपने एक गुरु कनकनंदी का उल्लेख किया है । और लिखा है कि उन्होंने इन्द्रनन्दी के पास से सकल सिद्धान्त को सुनकर 'सत्वस्थान' की रचना की है ।३ इस मत्वस्थान प्रकरण को उन्होंने गोम्मटसार कर्मकाण्ड के तीसरे सत्वस्थान अधिकार में प्रायः ज्यों का त्यों अपनाया है। यह ग्रन्थ 'विस्तरसत्वत्रिभंगी' नाम से जैन सिद्धान्त भवन आरा में विद्यमान है। मेरे संग्रह की तीन पत्रात्मक प्रति में इसका नाम 'विशेषसत्ता त्रिभंगी' दिया है । नेमिचन्द्र गंगवंशीय राजा राचमल्ल के प्रधान मन्त्री और सेनापति चामुण्डराय के समकालीन थे। यह अत्यन्त प्रभावशाली और सिद्धान्तशास्त्र के मर्मज्ञ विद्वान् थे। इन्होंने गोम्मटसार की ३९७ गाथा में लिखा है कि जिस प्रकार चक्रवर्ती षट खण्ड पृथ्वी को अपने चक्र द्वारा प्राधीन करता है, उसी प्रकार मैंने अपने मति चक्र से पट खण्डागम को सिद्ध कर अपनी इस कृति में भर दिया है। । संभवत: इसी सफलता के कारण उन्हें सिद्धान्त चक्रवर्ती की उपाधि प्राप्त हुई हो। चामुण्डराय अजितसेनाचार्य के शिष्य थे। चामुण्डराय ने नेमिन्द्र का भी शिष्यत्व ग्रहण किया था। चामुण्डराय को प्रेरणा से नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार की रचना की थी। गोम्मट चामुण्डराय का घरुनाम था। जो मराठी तथा कन्नड़ो भाषा में प्रायः उत्तम, सन्दर, प्राकर्षक, एवं प्रसन्न करने वाला जैसे अर्थों में व्यवहृत होता है । और राय उनकी उपाधि थी। चामुण्डराय के इस 'गोम्मट' नाम के कारण ही उनके द्वारा बनवाई हई बाहबली की मूर्ति 'गोम्मटेश्वर' तथा 'गोम्मटदेव' जैसे नामों से प्रसिद्धि को प्राप्त हई है। उन्हीं के नाम की प्रधानता को लेकर ग्रन्थ का नाम 'गोम्मटसार' दिया गया है। जिनका अर्थ गोम्मट के लिये खीचा गया पूर्व के (षट् खण्डागम तथा धवलादि) ग्रन्थों का सार । इसी प्राशय को लेकर ग्रन्थ का 'गोम्मटसंग्रह सूत्र' नाम दिया गया है । जैसा कि कर्मकाण्ड की निम्न गाथा से प्रकट है
गोम्मट-संग्रहसत्तं गोम्मट सिहरूवरि गोम्मट जिणो य ।
गोम्मटरायविणिम्मिय-दक्खिण कुक्कुडजिणो जयउ॥९६८ इस गाथा में तीन कार्यों का उल्लेख करते हुए उन्हीं का जयघोषण किया गया है। इन्हीं तीन कार्यों में चामडराय की ख्याति है और वे हैं-१ गोम्मट संग्रह सूत्र २ गोम्मट जिन और दक्षिण कुक्कुटजिन । गोम्मटसंग्रह
गोम्मट के लिये किया गया सार रूप संग्रह ग्रंथ गोम्मटसार । गोम्मट जिन पद का अभिप्राय नेमिनाथ भगवान की उस एक हाथ प्रमाण इन्द्रनीलमणि की प्रतिमा से है जिसे गोम्मटराय ने बनवाकर गोम्मट-शिखरजन्दगिरि पर स्थित अपने मंदिर (वस्ति) में स्थापित किया था । और जिसके सम्बन्ध में यह कहा जाता है किन
१. इदि रणेमिचंद मुणिणाणप्पसु देग्गभयदि वच्छेण ।
रइयो तिलोयसागे खमंतु बहु सदाइरिया ॥ २. मिऊण अभयणंदि सद-सायर पारगिदणदिगुरु । वरवीरणंदिगगाहं पयडीणं पच्चय वोच्छं ॥७८५-गो० क०
णमह गुणरयणभूसरण सिद्धतामिय महद्धि भवभावं । वर वीरगंदिचंदं णिम्मलगुरण मिदणंदि गुरु ॥८७६ गो० क. वीरिंदणंदि बच्छेण प्पसदेणभयरणंदि सिस्सेण। दंसणचरित्तलद्धी सु सूयिया ऐमिचदेण ॥६४८ लब्धिसार ३. वर इदणंदि गुरुणो पासे सोऊण सयल सिद्धतं ।
सिरिकरणयणंदि गुरुणा सत्तट्ठाद्धं समुद्दिढें ॥३६६ गो० क. ४. जह चक्केरणय चक्की छक्खंड साहियं अविग्घेण ।
तह मइचक्केण मया छक्खंडं साहियं सम्मं ॥३६७ गो० क. १. देखो, अनेकान्त वर्ष ४ किरण ३-४ में डा० ए. एन० उपाध्ये का 'गोम्पट' नामक लेख