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जैन धर्म का प्राचीन इतिहास - भाग २
आचार्य अमृतचन्द्र का समय विक्रम की १० वीं शताब्दी का उत्तरार्ध है। पट्टावली में उनके पट्टारोहण का समय जो वि० सं० ६६२ दिया है, वह ठीक जान पड़ता है; क्योंकि सं० १०५५ में बनकर समाप्त हुए 'धर्मरत्नाकर' में अमृतचन्द्राचार्य के पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय से ६० पद्य के लगभग उद्धृत पाये जाते हैं।' इससे अमृतचन्द्र सं० १०५५ से पूर्ववर्ती हैं। पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार ने अमृतचन्द्र का समय १० वीं शताब्दी तृतीय चरण बतलाया है मोर रामसेन का १० वीं शताब्दी का चतुर्थ चरण है ।
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इन्द्रनन्दी ( ज्वालामालिनी ग्रन्थ के कर्ता)
प्रस्तुत इन्द्रनन्दी योगीन्द्र वे हैं जो मंत्र शास्त्र के विशिष्ट विद्वान थे । यह वासवनन्दी के प्रशिष्य और बप्पनन्दी के शिष्य थे । इन्होंने हेलाचार्य द्वारा उदित हुए अर्थ को लेकर 'ज्वालिनी कल्प' नाम के मंत्र शास्त्र की रचना की है । इस ग्रन्थ में मन्त्रि, ग्रह, मुद्रा, मण्डल, कटु, तेल, वश्यमंत्र, तन्त्र, वपनविधि, नीराजनविधि और साधन विधि नाम के दस अधिकारों द्वारा मंत्र शास्त्र विषय का महत्व का कथन दिया हुआ है । इस ग्रन्थ की प्राद्य प्रशस्ति के २२वें पद्य में ग्रन्थ रचना का पूरा इतिवृत्त दिया हुआ है । और बतलाया है कि देवी के प्रदेश से 'ज्वालिनीमत, नाम का ग्रन्थ हेलाचार्य ने बनाया था । उनके शिष्य गंगमुनि, नीलग्रीव और वीजाब हुए । आर्यिका क्षांतिरसव्वा और विरुवट्ट नाम का क्षुल्लक हुआ । इस तरह गुरु परिपाटी और अविच्छिन्न सम्प्रदाय से प्राया हुआ उसे कन्दर्प ने जाना और उसने गुणनन्दी नामक मुनि के लिये व्याख्यान किया, और उपदेश दिया । उनके समीप उन दोनों ने उस शास्त्र को न्यतः और अर्थतः इन्द्रनन्दी मुनि के प्रति भले प्रकार कहा । तब इन्द्रनन्दि ने पहले क्लिष्ट प्राक्तन शास्त्र को हृदय धारण कर ललित आर्या और गीतादिक में हेलाचार्य के उक्त अर्थ को ग्रन्थ परिवर्तन के साथ सम्पूर्ण जगत को विस्मय करने वाला जनहितकर ग्रन्थ रचा । अतएव प्रस्तुत इन्द्रनन्दी विक्रम की दशवीं शताब्दी के उपान्त्य समय के विद्वान हैं। क्योंकि इन्होंने ज्वालामालिनी कल्प की रचना शक सं० ८६१ सन् ६३६ ( वि० सं० ६६६ में बनाकर समाप्त किया था।
गोम्मटसार के कर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने इन्द्रनंदि का गुरु रूप से स्मरण किया है । ये इन्द्रनंदि वही जान पड़ते हैं । जिनके दीक्षा गुरु बप्पनन्दी और मंत्रशास्त्र गुरु गुणनन्दी और सिद्धान्त शास्त्र गुरु श्रभयनंदी हो
१. अनेकान्त वर्ष ८ किरण ४-५ में प्रकाशित अमृतचन्द्र सूरिका समय पृ० १७३
२. यद् वृत्तं दुरितारिसन्यहनने चण्डासि धारायितम् चित्तं यस्य शरत्सरत्सलिलवत्स्वच्छं सदाशीतलम् । कीर्तिः शारद कौमुदी शशिभूतो ज्योत्स्नेव यस्याऽमला स श्री वासवनन्दि सन्मुनिपतिः शिष्यस्तदीयो भवेत् ||२|| शिष्यस्तस्य महात्मा चतुरनुयोगेषु चतुरमति विभवः । श्री प्रदिगुरु रिति बुधमधुपनिषेवित्पदाब्जः ॥ ३ लोके यस्य प्रसादाद्जनि मुनिजनस्तत्पुराणार्थवेदी । यस्याशास्तंभ मूर्धन्यति विमलयशः श्री विताना निबद्धः । कालास्तायेन पौराणिक कविवृषभ । द्योतितास्तत्पुराणव्यख्यानाद् बप्पणंदि प्रथितगुण-गणस्तस्य किं वर्ण्यतेऽत्र ॥ २
३. अष्टशतस्यैकपष्ठि प्रमारणशकवत्सरेष्वतीतेषु । श्रीमान्यखेट कंटके पर्व ण्यक्षय तृतीयायाम् ॥ शतदलसहित चतुःशत परिमाणग्रन्थ रचनयायुक्तम् श्रीकृष्णराज राज्ये समाप्तमेतन्मत देव्याः ||
देखो ज्वालामालिनी कल्प कारंजाभंडार प्रशस्ति । जैन साहित्य संशोधक खण्ड २ अंक ३, पृ० १४-१५६