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नवमी-दशवीं शताब्दी के आचार्य
२१३ जाते हैं। यदि यह कल्पना ठीक है तो नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के गरु इन्द्रनंदी का ठीक पता चल जाता है। समय की दृष्टि से भी नेमिचन्द्र और इन्द्रनंदी का सामंजस्य बैठ जाता है । इन्द्रनंदी ने इस ग्रन्थ की रचना मान्यखेट (मलखेडा) के कटक में राजा श्रीकृष्ण के राज्यकाल में शक संवत ८६१ (सन् ६३६) में की थी।
गुरुदास गुरुवास-यह कौण्ड कुन्दान्वयी श्रीनंदनंदी के शिप्य और श्रीनंदीगुरु के चरण कमलों के भ्रमर थे, जिन्हें जीत शास्त्र (प्रायश्चित्य शास्त्र) में विदग्ध और सिद्धान्तज्ञ बतलाया है । वे गुरुदास के पूर्ववर्ती बड़े गुरु भाई के रूप में हुए हैं। वृषभनंदी गुरुदास से भी उत्तरवर्ती हैं। गुरुदास को तीक्ष्णमती और सरस्वतीसूनु लिखा है। वे बड़े भारी विद्वान और ग्रंथकर्ता थे । वृषभनंदी ने जीतसार समुच्चय में लिखा है कि
श्रीनंदनन्दिवत्सः श्रीनंदिगुरुपदाब्ज-षट्चरणः ।
श्रीगुरुदासोनंद्या तीक्ष्णमतिः श्री सरस्वती सूनुः ॥ इनके द्वारा बनाया हुआ चूलिका सहित प्रायश्चित ग्रंथ अपूर्व रचना है। गुरुदास ने अपना कोई समय नहीं दिया । परन्तु जान पड़ता है कि गुरुदास विक्रम की दशवीं शताब्दी के उपान्त्य समय और ११वीं शताब्दो के पूर्वार्ध के विद्वान हैं।
बाहुबलिदेव यह व्याकरण शास्त्र के विद्वान प्राचार्य थे। उस समय रविचन्द्र स्वामी, अर्हनंदी, शुभचन्द्र भट्टारक देव, मौनीदेव, और प्रभाचंद्र नाम के मुनिगण विद्यमान थे। शाका ६०२ (वि० सं० १०३७) में राजा शान्तिवर्मा ने प्राचार्य बाहुबलिदेव के चरणों में सुगंधवर्ती (सौन्दत्ति) के जैन मंदिरों के लिये १५० एक सौपचास मत्तर भूमि प्रदान की थी।
भुवनैक मल्ल चालुक्य वंशीय सत्याश्रय के राज्य में लट्टलूरपुर के महामण्डलेश्वर कातिवीर्य द्वि० सेन प्रथम के पुत्र थे। उस समय रविचंद्र स्वामी और अर्हनन्दी मौजूद थे।
कनकसेन यह कुमारसेन के प्रशिप्य और वीरसेन के शिष्य थे। इन्हें श्रीकृष्ण वल्लभ के सामन्त विनयाम्बूधि के प्रदेश धवल में मूल्लगुन्द नगर के जिन मंदिर के लिये, जिसे चदार्य के पुत्र चिकार्य ने बनवाया था। अरसार्य ने दान दिया था। इस दान का उल्लेख सेनवंश के मूलगुन्द के शक सं० ८२४ (वि० सं० ६५६) के लेख में हुआ है। जैसा कि उसके निम्न पद्य से प्रगट है
शकनृपकालेष्टशते चतुरुत्तरविशदुत्तरे संप्रगते । दुंदुभिनामनि वर्षे प्रवर्तमाने जनानुरागोत्कर्षे ॥
सर्वनन्दि भट्टारक यह कुन्दकुन्द आम्नाय के विद्वान थे। इनके समय का एक शिलालेख मिला है जिसमें कुन्दकुन्दमाम्नाय के (मिटी के पात्र धारी ) भट्टारक के शिष्य सर्वनन्दि भट्टारकने कोप्पल के पहाड़ पर निवासकर वहां के लोगों को अनेक उपदेश दिये । और बहुत समय तक कठोर तपश्चरण कर सन्यास विधि से शरीर का परित्याग किया। पर शिलालेख शक सं०८०३ (वि० सं०६३८) का है। इससे ये विक्रम की दशवीं शताब्दी के प्राचार्य थे।
१. (See Indian Antiquary V. IV p. 279-80) २. जैन लेख सं० भा० २ पृ० १५८-६ ३. (See Jainism in South India p. 424