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________________ जैन धर्म का प्राचीन इतिहास-भाग २ इममें भगवान आदि नाथ की जीवन गाथा अंकित है। उनके जन्म, जन्माभिषेक, वाल्य लीला राज्य पद और तपस्वी जीवन का मुन्दर एवं संक्षिप्त परिचय दिया है। हिन्दी पद्यों में जिन पर गुजराती भाषा का प्रभाव अंकित है, उन्ही मंस्कृत पद्यों का भाव दिया हया है। डा. प्रेमसागर ने हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि में इस ग्रन्थ का रचना काल सं० १५५१ दिया है, जो किसी भूल का परिणाम है। उन्होंने ५६१ पद्य संख्या को फुटनोट में दिया है। वह निर्माण सूचक पद्य नहीं है, किन्तु पद्य संख्या की सूचना देता है। यदि प्रति में उसका रचना काल उन्हें मिला है तो उसका प्रमाण देना चाहिए था, पर नहीं दिया, यह रचना समय गलत है। नेमि निर्वाण पंजिका इसमें वाग्भट के नेमि निर्वाण महाकाव्य के विषम पदों का अर्थ स्पष्ट किया है । कहीं-कहीं यमक आदि के गूढ स्थलो के उद्घाटन करने का भी प्रयत्न किया है । पंजिका उपयोगी है उसका मगल पद्य निम्न प्रकार है : धत्वा नेमीश्वरं चित्ते लब्धानन्तचतष्टयं । कुहं नेमिनिर्वाण महाकाव्यस्य पंजिका ॥ श्री नाभिसूनो: युगादिदेवस्य प्रथयंतु विस्तारयंतु । समं युगपत् । विस्तृताः, अधः पतिताः, मणीयितं मणिभिरिव चरितं । यः पदपद्मयुग्मनरवैः ।। इति भट्टारक श्री ज्ञानभूपण विरचितायां महाकाव्य पंजिकायां प्रथम सर्गः ॥१॥ नेमि निर्वाण के सातवे सर्ग में रैवतक (गिरनार) पर्वत का बड़ा सुन्दर वर्णन आर्या, विन्द्यमाला मादि ४४ छन्दों में किया है जिस श्लोक में छन्द का प्रयोग किया है उसका नाम भी पद्य में अकित द्वयर्थक पद्यों के अर्थ को स्पष्ट किया है: मुनिगण सेव्या गुरुणा मुक्तार्या जयति सा मुत्र । चरणमतमखिलमेव स्फुरतितरां लक्षणं यस्याः ॥७-२ इसकी पंजिका निम्न प्रकार है: " 'मुनिगण सेव्या मुनिगणो भदन्तसमूहः सेव्यो लक्षणया पूज्यो नमस्करणीयो वयस्याः स तथोक्ताः, पक्षे सप्तगण सेव्या । गुरुणा गुरु दीक्षा गुरुः शिक्षा गुरुर्वरतेन, पक्षे एकेन दीर्घाक्षरेण । प्रार्या, प्रायिका, पक्षे प्रार्या नाम छन्दः । प्रमुत्र प्रत्र रैवतकाचले पक्षे अस्मिन्स । चरणगतेहे चारित्राश्रितम् पक्षे पादाश्रितम् । यस्याः प्रायिकायाः पक्षे प्रार्यस्याः ॥" दिल्ली धर्मपुरा मंदिर के शास्त्र भंडार में इस पंजिका की प्रति उपलब्ध है। परमार्थोपदेश–यह ग्रन्थ सूचियों में दर्ज हैं । पर मैने उसे देखा नहीं है, इसलिये उसका परिचय शक्य नहीं है । सरस्वती स्तवन-छोटा सा स्तोत्र है, जिसमें सरस्वती का स्तवन किया है, यह स्तोत्र अनेकान्त में प्रकाशित -सम्वोधन नाम का ग्रन्थ भी बताया जाता है, पर उसके देखे बिना उसके सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा जा सकता। इन्हीं ज्ञानभूषण के उपदेश से नागचन्द्रसूरि ने विषापहार और एकीभाव स्तोत्र की टीका की है। इनका समय १५२० से १५६० तक है । इसके बाद इनका कोइ विशेष परिचय मुझे ज्ञात नही होसका । इनकी मृत्यु कहां और कब हुई यह भी ज्ञात नहीं हो सका। कवि दामोदर यह मूलसंघ सरस्वति गच्छ और बलात्कार गण के भट्टारक प्रभाचन्द्र, पद्मनन्दी, शुभचन्द्र और जिन चन्द्र के शिष्य थे। भट्टारक जिनचन्द्र दिल्ली पट्ट के पट्टधर थे। उस समय के प्रभावशाली भट्टारक थे, प्राकृत संस्कृत के विद्वान और प्रतिष्ठाचार्य थे। आपके द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियां भारत के प्रायः सभी मन्दिरो में पाई
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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