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________________ तेरहवीं और चौदहवीं शताब्दी के विद्वान, आचार्य और कवि ४५१ पंचसंग्रह दीपक इस गन्थ की १०४ पत्रात्मक ताड पत्रीय प्रति खंभात के श्वेताम्बरीय शान्तिनाथसेन भंडार में नं० १३५ उपलब्ध है। उससे ज्ञात होता है कि यह नेमिचन्द्र सिद्धान्त चन्द्रवर्ती के गोम्मटसार अपरनाम पंचसंग्रह की संस्कृत श्लोक बद्ध रचना है, जैसा कि उसके प्रारम्भिक निम्न पद्यों से प्रकट है : सिद्धं शद्ध जिनाधीशं नेमीशं गणभूषणम् । न त्वा ग्रन्थं प्रवक्ष्यामि ‘पंचसंग्रह दीपकम्' ॥१॥ नेमिचन्द्र मुनीन्द्रेण यः कृतः पंचसंग्रहः । स वव श्लोक बंधन प्रव्यक्ती क्रियते मया ॥२॥ बन्धको बध्यमानं च बंधभेदास्तथेसता। हेतवश्चेति पचानां संग्रहोभ प्रकाशते ॥३॥ यस्तत्र बंधको जीवः सदृ सत्कर्मणां स्वयम् । तत्म्वरूय प्रकाशाय विशतिः स्य प्ररूपणा ॥४॥ गण जीवाश्च पर्याप्ति प्राणसंज्ञाश्च मार्गणा। उपयोग समा यक्ता भवंव्येता-प्ररूपणा ॥५॥ मार्गणा गुण-भेदाभ्ला फवतो के प्ररूपणे । मार्गणांतर्गताशेषाः जीव मुख्याः प्ररूपणाः ॥६॥ गोम्मटसार का श्लोक बद्ध यह सस्कृतिकरण अब तक देखने में नही पाया था। स्व. मुनिश्री पूण्यविजय जी ने खंभात के शांतिनाथ सेन भंडार की सूची भाग० २ में न० १३६ में पचसगह दीपक का 'श्लोक बद्ध' नाम से परिचय दिया है। यह ताडपत्र प्रति १३वीं शताब्दी की लिखी हई है। 'इति श्रीद्रवामदेव विरचिते 'परवाट वंश विशेषक श्री नेमिदेव यशः प्रकाशके पंचसंग्रह प्रदीपके बंधक स्वरूप प्र (प्ररूपिणो नाम) प्रथमो अधिकारः। यह प्रति संभवतः ग्रन्थ रचना के समय की या आस-पास की रची हुई जान पड़ती है। चकि विनयचन्द्र पंडित आशाधर जी के शिष्य थे, उन्होंने विनयचन्द्र को धर्मशास्त्र पढ़ाया था। विनयचन्द्र के शिष्य त्रैलोक्य कीति के शिष्य लक्ष्मीचन्द्र थे । इन लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य वामदेव ने इस ग्रन्थ की रचना की। पं० आशाधर जी १३वी शताब्दी के विद्वान हैं । अतएव उसके बाद वामदेव का समय होना चाहिए । अतः वामदेव का समय विक्रम की १४वीं शताब्दी जान पड़ता है। अमरकोति यहोन्द्रवंश के प्रसिद्ध विद्वान थे। जो विद्य कहलाते थे। यह अपने समय के अच्छे विद्वान जान पडते हैं। इनका बनाया हा धनंजय कवि की नाममाला का भाष्य भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हो चका है। उस ग्रन्थ की पुप्पिका में उन्हे विद्य महा पंण्डित और शब्द वेधस बतलाया है । भाष्य को देखने से अमरकीति विविध ग्रन्थों के अभ्यासी ज्ञात होते हैं। _ "इति महापण्डित श्रीमदमरकीतिना विद्यन श्रीसेन्द्रवंशोत्पन्नेन शब्द वेधसा कृतायां धनंजय नाम मालायां प्रथम काण्डं व्याख्यातम" 1 Sce - No 1.9 Panchasangarha Dipak Slok Bandha, Folios 104 Extent Granthas Age M.S Firasta Play of 13th exet 4S- Shautinatha Sain Bhandar Combay -अनेकान्त वर्ष २३ कि०४ १० १४६
SR No.010227
Book TitleJain Dharm ka Prachin Itihas Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmanand Jain
PublisherRameshchandra Jain Motarwale Delhi
Publication Year
Total Pages591
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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