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१५वी १२वीं ११ीं और १८वीं शादी के आचार्य, भट्टारक और कवि
४७७ क्रीड़ा करती थी वे स्याद्वाद सिन्धु रूप अमृत के वर्धक थे। उन्होंने जिनदोक्षा धारण कर जिनवाणो और पृथ्वी को पवित्र किया था। महाव्रती पुरन्दर तथा शान्ति से रागांकुर दग्ध करने वाले वे परमहंस निर्ग्रन्थ, पुरुषार्थ शालो, प्रशेष शास्त्रज्ञ सर्वहित परायण मुनिश्रेष्ट पद्मनन्दी जयवन्त रहें।' इन विशेषणों से पद्मनन्दी की महत्ता का सहज ही बोध हो जाता है। इनकी जाति ब्राह्मण थी। एक बार प्रतिष्ठा महोत्सव के समय व्यवस्थापक गृहस्थ की अविद्यमानता में प्रभाचन्द्र ने उस उत्सव को पट्टाभिषेक का रूप देकर पद्मनन्दी को अपने पट्ट पर प्रतिष्ठिन किया था। इनके पट्ट पर प्रतिष्ठित होने का समय पट्टावली में सं० १३८५ पौष शुक्ला सप्तमी बनलाया गया है। वे उस पटट पर संवत् १४७३ तक तो आसीन रहे ही हैं। इसके अतिरिक्त और कितने समय तक रहे, यह कुछ ज्ञात नहीं हुआ, और न यह ही ज्ञात हो सका कि उनका स्वर्गवास कहां और कब हुअा है ?
कुछ विद्वानों की यह मान्यता है कि पद्मनन्दी भट्टारक पद पर स० १४६५ तक रहे हैं । इस सम्बन्ध में उन्होंने कोई पुष्ट प्रमाण तो नहीं दिया, किन्तु उनका केवल वैसा अनुमान मात्र है अोर यह भी संभव है कि पटट पर शुभचन्द्र को प्रतिष्ठित कर प्रतिष्ठादि कार्य सम्पन्न किये हो कुछ समय और अपने जीवन से भूमहल को अलकृत करते रहे हों। अत: इस मान्यता में कोई प्रामाणिकता नहीं जान पड़ती। क्योंकि सवत् १४७३ को पद्मकीति रचित पार्श्वनाथ चरित की प्रशस्ति से स्पष्ट जाना जाता है कि पद्मनन्दी उस समय तक पट्ट पर विराजमान थे, जैसा कि प्रशस्ति के निम्न वाक्य से प्रकट है
"कुन्दकुन्दाचार्यान्वये भ० श्री रत्नकोति देवास्तेषां पट्टे भट्टारक श्री प्रभाचन्द्र देवा तत्पट्टे भ० स्त्री पद्म नन्दि देवास्तेषां पट्टे प्रवर्तमाने-'
(मुद्रित पार्श्वनाथ चरित प्रशस्ति) इससे यह भी ज्ञात होता है कि पद्मनन्दी दीर्घजीवी थे। पट्टावली में उनकी आयु निन्यानवे वर्ष अठ्ठाईस दिन की बतलाई गई है और पट्टकाल पैसठ वर्ष पाठ दिन बतलाया है।
यहाँ इतना और प्रकट कर देना उचित जान पड़ता है कि वि० सं० १४७६ में असवाल कवि द्वारा रचित 'पासणाहचरिउ' में पद्मनन्दी के पट्ट पर प्रतिष्ठित होने वाले भ० शुभचन्द्र का उल्लेख निम्न वाक्यों में किया है"तहो पट्टवर ससिणामें सुहससि मणि पयपंकयचंद हो।" चूंकि सं० १४७४ में पद्मनन्दी द्वारा प्रतिष्ठित मूर्ति लेख उपलब्ध है, अतः उससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि पद्मनन्दी ने सं० १४७४ के बाद और सं०१४७६ से पूर्व किसी समय शुभचन्द्र को अपने पद पर प्रतिष्ठित किया था।
कवि असवाल ने कुशात देश के करहल नगर में सं० १४७१ में होने वाले प्रतिष्ठोत्सव का उल्लेख किया है। और पद्मनन्दी के शिष्य कवि हल्ल या जयमित्र हल्ल द्वारा रचित 'मल्लिणाह' काव्य की प्रशसा का भी उल्लेख किया है। उक्त ग्रन्थ भ० पद्मनन्दी के पद पर प्रतिष्ठित रहते हुए उनके शिष्य द्वारा रचा गया था। कवि हरिचन्द ने अपना वर्धमान काव्य भी लगभग उसी समय रचा था। इसी से उसमें कवि ने उनका खुला यशोगान किया है:'पद्मणंदि मुणिणाह गणिदहु, चरण सरण गुरु का हरिइंबहु'
-(वर्धमान काव्य) आपके अनेक शिष्य थे, जिन्हें पद्मनन्दी ने स्वयं शिक्षा देकर विद्वान बनाया था। भ० शुभचन्द, तो उनके
१. हंसोजानमरालिका समसमा श्लेषप्रभूताद्भुता । नन्दं क्रीडति मानमेति विशदे यस्यानिश सव्वंतः ।। स्याद्वादामृतसिन्धुवर्धनविधी श्रीमप्रभेन्दुप्रभाः। पट्टे सूरि मतल्लिका स जयतात् श्रीपग्रनन्दी मुनिः ।। महाव्रत पुरन्दरः प्रश्मदग्ध रोगाङ्कुरः । स्फुरत्परमपौरुषः स्थितिरशेषशास्त्रार्थवित् यशोभर मनोहरीकृत समस्तविश्वम्भरः । परोपकृति तत्परो जयति पपनन्दीश्वरः ॥
- शुभचन्द्र पट्टावली