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नवीं और दशवीं शताब्दी के आचार्य
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प्रतिपादित किया है । तथा सम्यग्दर्शन का स्वरूप बतलाते हुए सप्त तत्त्वों का विशद वर्णन किया है । तत्त्वार्थ सूत्र का पद्य में अनुवाद होते हुए भी एक स्वतंत्र ग्रंथ जैसा प्रतीत होता है । कहीं-कहीं तो ऐसा जान पड़ता है कि अमृतचन्द्राचार्य ने गद्य के स्थान में पद्य का रूप दिया है और कितने ही स्थानों पर उन्होंने नवीन तत्त्वों का संयोजन भी किया है और उसके लिए उन्हें अकलंक देव के तत्त्वार्थं वार्तिक का सर्वाधिक आश्रय लेना पड़ा है । उसके वार्तिकों को श्लोक रूप में निबद्ध करके तत्त्वार्थसार के महत्व को वृद्धिगत किया है ।
समय
पट्टावली में अमृतचन्द्र के पट्टारोहण का समय वि० सं० ६६२ दिया है । वह प्रायः ठीक है । क्योंकि धर्मरत्नाकर के कर्ता जयसेन ने, जो लाडवागड संघ के विद्वान थे । उन्होंने अमृतचन्द्रसूरि के पुरुषार्थसिद्धयुपाय के ५६ पद्य उद्धृत किये है। जयमेन ने अपना यह ग्रंथ वि० सं० १०५५ में बनाकर समाप्त किया है ।" अतः आचार्य अमृतचन्द्र सं० १०५५ से पूर्ववर्ती है। मुख्तार सा० ने लिखा है कि प्रमित गति प्रथम के योगसार प्राभृत पर भी अमृतचन्द्र के तत्त्वार्थसार तथा समयसारादि टीकाओं का प्रभाव परिलक्षित होता है । जिनका समय अमित गति द्वितीय से कोई ४०-५० वर्ष पूर्व का जान पड़ता है। ऐसी स्थिति में अमृतचन्द्रसूरि का समयविक्रम की १० वीं शताब्दी का तृतीय चरण है। पं. नाथूराम प्रेमी और डा० ए एन. उपाध्ये अमृतचन्द्र का समय १२वीं मानते थे, पर वह मुझे नही रुचा । फलतः मैने अपने लेख में अमृतचन्द्र के समय को दशवीं शताब्दी का बतलाया, तब से सभी उनका समय १०वीं शताब्दी मानने लगे हैं ।
रामसेन
रामसेन नाम के अनेक विद्वान हो गये हैं । उनमें प्रस्तुत रामसेन सबसे भिन्न हैं । ग्रन्थ प्रशस्ति में राम सेन ने अपना संक्षिप्त परिचय पांच गुरुओं के नामोल्लेख के साथ दिया है उससे रामसेन के सम्बन्ध में स्पष्ट परिचय तो ज्ञात नहीं होता । ब्रह्मश्रुतसागर ने रामसेन को 'प्रथमाङ्गपूर्व भागज्ञाः' लिखा है जिससे वे अंगपूर्वी के एक देश ज्ञाता जान पड़ते हैं। उनका संघ-गण-गच्छ क्या था और उनके शिष्य-प्रशिष्यादि कौन थे । उन्होंने तत्त्वानुशासन के सिवाय अन्य किन ग्रन्थों की रचना की इसका कोई भी उल्लेख नहीं मिलता । ग्रन्थ प्रशस्तियों पट्टावलियों और शिलालेखादि में भी ऐसा कोई परिचय उपलब्ध नहीं होता, जिससे उनके सम्बन्ध में विचार किया जा सके और यह ज्ञात हो सके कि नागसेन के शिष्य राममेन की शिष्य परम्परा क्या और कहां थी । रामसेन ने नागसेन को अपना दीक्षा गुरु लिखा है, वे पट्ट गुरु नही थे। उन्होंने अपने चार गुरुयों के नामोल्लेख के साथ दीक्षा गुरु में नाग
१. वाग्गेन्द्रियव्योमसोम - मिते मंवत्सरे शुभे । ( १०५५) सन्थोऽयं सिद्धतां यातः मवली करहाटके ।।
-धर्म रत्नाकर प्रशस्ति
२. देखो, अनेकान्त वर्ष ८ कि ४-५ में अमृतचन्द्र सूरि का समय शीर्षक लेख ( पृ १७३ )
३. सेनगा के राममेन पंडितदेव को, जिन्हें सं० ११३४ की पौष शुक्ला ७ को उत्तरायण संक्रान्ति के दिन चालुक्य वंशीय त्रिभुवनमल्ल के समय गंग पेर्मानडि जिनालय के लिए राजधानी बनगावे में दान दिया गया ।
- भ० सम्प्रदाय पृ० ७
दूसरे रामसेन वे हैं जो नरसिंह पुरा जाति के प्रबोधक एवं संस्थापक थे । तीमरे रामसेन निष्पिच्छ माथुर संघ के संस्थापक ।
इन तीनों राममेनों में से तत्त्वानुशासन के कर्ता रामसेन भिन्न हैं ।
४. देखो, सुत्त पाहुडटीका गाथा २